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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
से ही घट में पटरुप से अपरिणमन का सद्भाव है। अर्थात् घट पटरुप से परिणमित होता नहीं है, उसमें पट का स्व-पर्याय ही कारणभूत बनता होने से घट में पटरुप से अपरिणमन पट के आश्रय से ही है। अर्थात् घट पट नहीं है, ऐसी विवक्षा पट के आश्रय से ही होती है - उसमें पट की अपेक्षा है ही।
तदुपरांत, लोक में घट-पटादि के परस्पर के इतरेतराभाव के आश्रय से एक-दूसरे के संबंधी के रुप में व्यवहार होता है । अर्थात् “घट पटरुप नहीं है" या "पट घटरुप नहीं है" इस तरह से घट-पट का परस्पर अभाव इतरेतराभाव को निमित्त बनाकर लोक में घट और पट में नास्तित्वरुप संबंध का व्यवहार होता है। इसलिए यह बात अविगीत - निर्विवाद है।
"वे पर-पर्यायों उसके है" इस अनुसार से जो व्यपदेश किया जाता है, उसमें स्व-पर्यायों के भेदक के रुप में पर-पर्यायो का उपयोग होता है। कहने का मतलब यह है, कि घट को दूसरे पदार्थो से भिन्न करने के लिए प्रथम यह घट के पर्याय है तथा ये दूसरी वस्तुओ के पर्याय है कि जो घट के पर्यायो से भिन्न है। ऐसी विवक्षा हो तब ही घट दूसरे पदार्थो से भिन्न सिद्ध होता है। उसमें घट के स्वपर्यायो के भेदक परपर्याय ही बनते है। इसलिए घट के स्व-पर्यायो के भेदक के रुप में पर-पर्यायो का उपयोग होता ही है। __ यहाँ जो जिसके स्व-पर्याय के भेदक के रुप में उपयोगी होते है, वे उसके पर्याय ही होते है। जैसे कि, घट का परस्पर भेद करनेवाले रुपादि पर्याय । वैसे ही घट के स्वपर्यायो के भेदक के रुप में पटादिपर्याय भी उपयोगी होते है। क्योंकि वे पटादिपर्यायो के बिना घट के स्वपर्यायों स्वपर्याय के रुप में व्यपदेश नहीं पा सकते। वह इस तरह-से यदि वे परपर्याय घट के न हो तो घट के स्वपर्याय स्वपर्याय के रुप में व्यपदेश नहीं पा सकते है। क्योंकि पर की अपेक्षा से ही स्व के व्यपदेश का सद्भाव होता है। इसलिए (विवक्षित घट-वस्तु के) स्व पर्याय के व्यपदेश का कारण होने से वे (पटादि गत) पर-पर्याय भी उसके उपयोगी बनते है। इसलिए वे परपर्यायो का भी घट के पर्यायो के रुप में व्यपदेश किया जाता है।
अपि च, सर्वं वस्तु प्रतिनियतस्वभावं, सा च प्रतिनियतस्वभावता प्रतियोग्यभावात्मकतोपनिबन्धना । ततो यावन्न प्रतियोगिविज्ञानं भवति तावनाधिकृतं वस्तु तदभावात्मकं तत्त्वतो ज्ञातुं शक्यते, तथा च सति पटादिपर्यायाणामपि घटप्रतियोगित्वात्तदपरिज्ञाने घटो न याथात्म्येनऽवगन्तुं शक्यत इति पटादिपर्याया अपि घटस्य पर्यायाः । तथा चात्र प्रयोगःयदनुपलब्धौ यस्यानुपलब्धिः स तस्य सम्बन्धी, यथा घटस्य रूपादयः, पटादिपर्यायानुपलब्धौ च घटस्य न याथात्म्येनोपलब्धिरिति ते तस्य 'सम्बन्धिनः । न चायमसिद्धो हेतुः, पटादिपर्यायरूपप्रतियोग्यपरिज्ञाने तदभावात्मकस्य घटस्य तत्त्वतो ज्ञातत्वायोगादिति, आह च भाष्यकृत्-“जेसु अनाएसु तओ, न नज्जाए नज्जाए य नाएसु । किह तस्स ते न धम्मा, घडस्स रूवाइधम्मव्व ।।१।।" तस्मात्पटादिपर्याया अपि घटस्य सम्बन्धिन इति । परपर्यायाश्च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः उभये तु स्वपरपर्यायाः सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणाः । न चैतदनाष यत
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