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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५६, जैनदर्शन
तरह से बोल सकता हूं और अन्य प्रवृत्तियां कर सकता हूं। इस तरह ज्ञान और वचनव्यवहार तथा प्रवृत्तियों के बीच प्रतिबंध = कार्यकारणभाव का निश्चय होता है । अर्थात् व्यापार और व्यवहार का ज्ञानकार्यत्वेन प्रतिबंध निश्चित होता है। इस तरह यज्ञदत्त आदि भी वचनप्रयोग करते है और भोजन आदि की प्रवृत्ति करते है । इसलिए उनकी वे प्रवृत्तियां भी ज्ञानपूर्वक की है। इससे देवदत्त के वचनव्यवहार और प्रवृत्तियों में कारणभूत ज्ञानसंतान से यज्ञदत्त आदि के वचनव्यवहार में और प्रवृत्तियो में कारणभूत ज्ञानसंतान स्वतंत्र सिद्ध होती है। इसलिए यह अनुमान प्रत्येक की स्वतंत्र ज्ञानसंतान सिद्ध करने में पर्याप्त है। इसलिए ज्ञानसंतान अनेक ही है ।
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उत्तरपक्ष (जैन) : आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि आप लोगो ने प्रत्यक्षज्ञान को स्वप्न के दृष्टांत के निर्देशपूर्वक अनुमान से भ्रान्त सिद्ध किया है । वैसे उपरोक्त ज्ञानसंतानान्तर साधक अनुमान भी स्वप्न के दृष्टान्त से भ्रान्त बन जाने की आपत्ति आती ही है । (आप लोगो ने प्रत्यक्षज्ञान को भ्रान्त सिद्ध करने के लिए जो अनुमान दिया है वह इस अनुसार है ) " जगत के समस्त प्रत्यय निरालंबन है अर्थात् उसका कोई बाह्यपदार्थ विषय नहीं है। (स्वरुपमात्र को विषय करता है।) क्योंकि वह प्रत्यक्ष है । जैसे कि स्वप्न- प्रत्यय सारांश में, आपने इस अनुमान से सिद्ध किया है कि "जो जो प्रत्यक्ष है वह निर्विषयक है - निरालंबन है, " जैसे कि, स्वप्न - प्रत्यय ।
इसलिए उपरोक्त अभिप्राय से जैसे प्रत्यय बाह्यार्थ ग्रहण के निरालंबनपूर्वक होने से अर्थात् प्रत्यय बाह्यार्थ को विषय बनाता न होने से बाह्यार्थ का अभाव सिद्ध किया था, वैसे संतानान्तरसाधन भी निरालंबन होने से अर्थात् संतानान्तरसाधक प्रत्यय भी निर्विषयक होने से (उपर की तरह) संतानान्तर का अभाव सिद्ध हो जाता है । (परंतु वह किसी भी तरह से उचित नहीं है, क्योंकि वादि-प्रतिवादि की चर्चा में अनेक ज्ञानसंतान प्रत्यक्ष से स्वतंत्र सत्ता रखती देखने को मिलती है ।)
" इतरज्ज्ञेयं परोक्षं" प्रागुक्तात् प्रत्यक्षादितरत् - अस्पष्टतयार्थस्य स्वपरस्य ग्राहकं निर्णायकं परोक्षं ज्ञेयम् - अवगन्तव्यम् । परोक्षमप्येतत्स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षमेव बहिरर्थापेक्षया तु परोक्षव्यपदेशमनुत इति दर्शयन्नाह " ग्रहणेक्षया " इति । इह ग्रहणं प्रस्तावादपरोक्षे बाह्यार्थे ज्ञानस्य प्रवर्तनमुच्यते न तु स्वस्य ग्रहणं, स्वग्रहणापेक्षया हि स्पष्टत्वेन सर्वेषामेव ज्ञानानां प्रत्यक्षतया व्यवच्छेद्याभावाद्विशेषणवैयर्थ्यं स्यात्, ततो ग्रहणस्य बहिः प्रवर्तनस्य या ईक्षा - अपेक्षा तया, बहिः प्रवृत्तिपर्यालोचनयेति यावत् । तदयमत्रार्थः - परोक्षं यद्यपि स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षं, तथापि लिङ्गशब्दादिद्वारेण बहिर्विषयग्रहणेऽसाक्षात्कारितया व्याप्रियत इति परोक्षमित्युच्यते । । ५६।।
व्याख्या का भावानुवाद :
“प्रत्यक्ष से इतरज्ञान परोक्ष है।" अर्थात् पहले कहे हुए प्रत्यक्षज्ञान से इतर अस्पष्टतया (अस्पष्टरुप
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