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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
लगने से यातना देता है, उससे वध्यवधकभाव संबंध, उस घट के कारण जिससे विरोध होता है या उस घट में रखी हुई वस्तु खराब होती है, उसके योग से विरोध्य-विरोधकभाव संबंध, वह घट ज्ञान का विषय बनता होने से ज्ञान के साथ ज्ञेयज्ञापकभाव संबंध, इत्यादि संख्यातीत संबंध है। उन संबंधो की अपेक्षा से (प्रत्येक =) एक घट में अनंतस्वभाव होते है।
इस अनुसार से जो जो अनंतानंत स्व-पर पर्याय कहे, वे सभी का उत्पाद, विनाश और स्थिति बारबार होती होने से अनंतकाल की अपेक्षा से (सर्व पर्याय) हुए थे, होते हैं और होंगे.. इसलिए तीन काल की अपेक्षा से (उत्पाद, विनाश स्थितिरुप त्रिपदी से भी) घट में अनंता धर्म है। कहने का मतलब यह है कि पहले कहे हुए घट के अनंता स्व पर्याय अनंतकाल की अपेक्षा से उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते है और उत्पन्न होंगे, इसलिए उत्पाद-विनाश-ध्रुवरुप त्रिपदी से भी अनंताधर्म घट में है। ___ इस अनुसार से (घट की भावतः विवक्षा करने से) पीतवर्ण से आरंभ करके भावतः घट के अनंताधर्म होते है। अर्थात् भावतः घट की अनंतधर्मात्मकता सिद्ध होती है। इस तरह से एक ही घट में स्वधर्मो की अपेक्षा से अस्तित्व और परधर्मो की अपेक्षा से नास्तित्व है। ___तथा द्रव्यक्षेत्रादिप्रकारैर्ये ये स्वधर्माः परधर्माश्चाचचक्षिरे तैरुभयैरपि युगपदादिष्टो घटोऽवक्तव्यः स्यात्, यतः कोऽपि स शब्दो न विद्यते येन घटस्य स्वधर्माः परधर्माश्चोच्यमाना द्वयेऽपि युगपदुक्ता भवन्ति, शब्देनाभिधीयमानानां क्रमेणैव प्रतीतेः, सङ्केतितोऽपि शब्दः क्रमेणैव स्वपरधर्मान् प्रत्याययति, न तु युगपत्, “शतृशानचौ सत्" इति शतृशानचोः सङ्केतितसच्छब्दवत्, ततः प्रतिद्रव्यक्षेत्रादिप्रकारं घटस्यावक्तव्यतापि स्वधर्मः स्यात्, तस्य चानन्तेभ्यो वक्तव्येभ्यो धर्मेभ्योऽन्यद्रव्येभ्यश्च व्यावृत्तत्वेनानन्ता अवक्तव्याः परधर्मा अपि भवन्ति । तदेवमनन्तधर्मात्मकत्वं यथा घटे दर्शितं, तथा सर्वस्मिन्नप्यात्मादिके वस्तुनि भावनीयम् । तत्राप्यात्मनि तावञ्चैतन्यं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं प्रमातृत्वं प्रमेयत्वममूर्तत्वमसङ्ख्यातप्रदेशत्वं निश्चलाष्टप्रदेशत्वं लोकप्रमाणप्रदेशत्वं जीवत्वमभव्यत्वं भव्यत्वं परिणामित्वं स्वशरीरव्यापित्वमित्यादयः सहभाविनो धर्माः, हर्षविषादौ सुखदुःखे मत्यादिज्ञानचक्षुर्दर्शनादिदर्शनोपयोगौ देवनारकतिर्यग्नरत्वानि शरीरादितया परिणमितसर्वपुद्गलत्वमनाद्यनन्तत्वं सर्वजीवैः सह सर्वसम्बन्धवत्त्वं संसारित्वं क्रोधाद्यसङ्ख्याध्यवसायवत्त्वं हास्यादिषट्कं स्त्रीपुंनपुंसकत्वमूर्खत्वान्धत्वादीनीत्यादयः क्रमभाविनो धर्माः मुक्तात्मनि तु सिद्धत्वं साद्यनन्तत्वं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्याण्यनन्तद्रव्यक्षेत्रकालसर्वपर्यायज्ञातृत्वदर्शित्वानिअशरीरत्वमजरामरत्वमरूपरसगन्धस्पर्शशब्दत्वानि निश्चलत्वं नीरुक्त्वमक्षयत्वमव्याबाधत्वं प्राक्संसारावस्थानुभूतस्वस्वजीवधर्माश्चेत्यादयः ।
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