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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक -५५, जैनदर्शन
हेतुफलभावाभावप्रसक्तिर्भवेदिति प्रत्येयम् ।
व्याख्या का भावानुवाद :
अब प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का लक्षण कहा जाता है। स्व और पर का निश्चय करनेवाले स्पष्ट = परनिरपेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है । वह दो प्रकार का है । (१) सांव्यवहारिक, (२) पारमार्थिक । बाह्यचक्षु आदि इन्द्रियां, प्रकाश आदि सामग्री से उत्पन्न होनेवाला हम जैसो का ज्ञान सांख्यवहारिक ज्ञान कहा जाता है । वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बाह्यइन्द्रियादि को सापेक्ष होने से अपारमार्थिक है। (फिर भी लोकव्यवहार में उसकी प्रत्यक्ष रुप में प्रसिद्धि होने से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है।)
पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो केवल आत्मा से उत्पन्न होता है। अर्थात् केवल आत्मा से उत्पन्न होता अवधिज्ञान आदि पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। __ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का है। (१) चक्षु आदि इन्द्रियनिमित्तक, (२) मनोनिमित्तक । इन्द्रियो के निमित्त से होता ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है। मन के निमित्त से होता ज्ञान मानस प्रत्यक्ष कहा जाता है।
ये दोनो प्रकार के सांख्यव्यवहारिक प्रत्यक्ष के (१) अवग्रह, (२) ईहा,(३) अपाय, और (४) धारणा, ये चार भेद से चार प्रकार है। ___ उसमें विषय = पदार्थ और विषयी = इन्द्रियो का सन्निपात होने से, उसके अनंतर "यह कुछ है" - ऐसी सत्तामात्र को विषय करनेवाला दर्शन होता है। उससे उत्पन्न हुए सामान्याकार के अवांतर विशिष्टवस्तु को ग्रहण करनेवाले प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि-द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थरुप विषय और चक्षु आदि इन्द्रियाँ रुप विषयि का भ्रान्ति आदि को नहि उत्पन्न करने में अनुकूल योग्यदेश स्थितिरुप संबंध से अनंतर "यह कुछ है" ऐसा वस्तु की सत्ता मात्र को विषय करनेवाला दर्शन = निराकारबोध उत्पन्न होता है। उस निराकार बोध से सत्ता-सामान्यादि के अवांतर मनुष्यत्व, घटत्व आदि विशेषो से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण करनेवाला प्रथम ज्ञान उत्पन्न होता है। उसे "अवग्रह" कहा जाता है - अर्थात् “यह मनुष्य है", "यह घट है" इत्यादि अवांतर विशेषो से विशिष्टवस्तु का ग्रहण होता है । वह अवग्रह कहा जाता है। __ अवग्रह से ग्रहण किये गये विषय में= पदार्थ में संशय होने के बाद उस वस्तु के विशेषनिर्णय के लिए "यह ऐसा होना चाहिए।" इस प्रकार की विचारणा को "ईहा" कहा जाता है। (जैसे कि सामान्यरुप से घट को जान लेने के बाद “यह घट अहमदावादी है या वापी का है" - ऐसा संशय होता है, उस संशय के उत्तर में यह घट अहमदाबादी होना चाहिए - ऐसी संभावनाविषयक ज्ञान को ईहा कहा जाता है।) इहा के अनंतर इहा द्वारा संभावित विशेषपदार्थ का निर्णय करना उसे "अवाय" (अपाय) कहा जाता है।
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