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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५५, जैनदर्शन
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व्याख्या का भावानुवाद :
श्लोक के उत्तरार्ध में रहे हुए "अनन्तधर्मकं वस्तु" इत्यादि पद की व्याख्या की जाती है। यहाँ प्रमाण के अधिकार में प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का विषय अनंतधर्मात्मक वस्तु है । अर्थात् उन दो प्रमाण से ग्राह्यवस्तु अनंतधर्मात्मक है। अनंत = त्रिकालविषयक अपरिमित सहभावी और क्रमभावी स्व- पर पर्याय जिसमें होता है, वह अनंतधर्मात्मक कहा जाता है । जगत के सभी पदार्थ तादृश अनंतधर्मात्मक होते है। यहाँ “अनंतधर्म” शब्द को स्वार्थ में "क" प्रत्यय लगने से "अनंतधर्मकम्" शब्द बना हुआ है। उसका दूसरा नाम " अनेकान्तात्मक" है । "अनेक अंश या धर्म ही स्वरुप जिसका होता है, उसको अनेकान्तात्मक कहा जाता है ।" इस व्युत्पत्ति से " अनेकान्तात्मक" शब्द बना हुआ है ।
‘अनेकान्तात्मक' विशेषण का विशेष्य जो वस्तु है, उसमें सचेतन-अचेतन सर्वद्रव्यों का समावेश होता है .. इसलिए “अनेकान्तात्मक सचेतन - अचेतन वस्तु पक्ष है । "प्रमाण विषय" इस शब्द के द्वारा “प्रमेयत्वात्” केवलव्यतिरेकी हेतु सूचित होता है । अन्यथा अनुपपत्ति = अविनाभावरुप एक ही हेतु का लक्षण है तथा पक्ष में ही साध्य और साधन के अविनाभाव को ग्रहण करनेवाली अंतर्व्याति के बल से ही हेतु साध्य को सिद्ध करता है । इसलिए उक्त अनुमान में दृष्टांत आदि का कोई प्रयोजन नहीं है ।
तदुपरांत, “जो अनंतधर्मात्मक नहीं है, वह प्रमेय भी नहीं है, जैसे कि आकाशकुसुम" यह व्यतिरेक व्याप्ति से ही प्राप्त होता है । इसलिए हेतु केवलव्यतिरेकी ही है ।
साधर्म्यदृष्टांतो-अन्वयदृष्टांतो का पक्ष की कुक्षी में ही समावेश होता होने से अन्वय - व्याप्ति का अयोग है। (कहने का मतलब यह है कि जगत के सचेतन-अचेतन सभी पदार्थो को उक्त अनुमान में पक्ष बनाया है और कभी भी पक्ष को दृष्टांत के रुप में दिया नहीं जा सकता। इसलिए यहाँ अन्वयदृष्टांत का अभाव है । इसलिए मात्र व्यतिरेकी दृष्टांत दीया है ।)
“प्रमेयत्व” हेतु में असिद्धि, विरुद्ध, अनैकान्तिक (व्यभिचार) आदि किसी दोषो का अवकाश नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादिप्रमाणो के द्वारा सभी सचेतन-अचेतनवस्तु अनंतधर्मात्मक प्रतीत होती ही है । अर्थात् प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणो का विषय अनंतधर्मात्मक वस्तु ही बनती है ।
इसलिए वस्तु की अनेकांतता को सिद्ध करने के लिए प्रयोजित किया गया हेतु सर्वथायोग्य ही है। शंका : एक ही वस्तु में अनंतधर्म किस तरह से प्रतीत होते है, वह हमको समज में नहीं आता है।
समाधान : प्रमाण या प्रमेयरुप समस्तवस्तु में स्व-परद्रव्य की अपेक्षा से क्रम या युगपत् रुप से रहनेवाले अनंतधर्मो की सर्वत्र सर्वदा जिस अनुसार से सर्वप्रमातृओ को प्रतीति होती है, उसी अनुसार से ही हम अनेकान्तात्मकता को सुवर्ण के घट के उदाहरण से सविस्तार बताते है ।
विवक्षितो हि घटः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विद्यते, परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च - 16 न विद्यते, ( G - 16 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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