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षड्दर्शन समुश्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
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इदमस्माद्दीधैं हस्वमणीयो महीयो दवीयो वा दूरादयं तीव्रो वह्नि सुरभीदं चन्दनमित्यादि । अत्रादिशब्दात्स एव वह्निरनुमीयते स एवानेनाप्यर्थः कथ्यत इत्यादि स्मरणसचिवानुमानागमादिजन्यं च सङ्कलनमुदाहार्यम् २ । उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालकलि तसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनं -83तर्कः, यथाग्नौ सत्येव धूमो भवति तदभावे न भवत्येवेति ३ । अनुमानं द्विधा, स्वार्थं परार्थं च । हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणहेतुकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् -84 । निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुःF-85 । इष्टमबाधितमसिद्धं F-86साध्यं, साध्यविशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी पक्षःF-87 । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात्-88 । F-8°मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तोपनयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि । व्याख्या का भावानुवाद :
अब परोक्षप्रमाण को कहते है। अविशद - अस्पष्ट अविसंवादि ज्ञान को परोक्ष कहा जाता है। वह परोक्ष स्मरण (स्मृति), प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम के भेद से पांच प्रकार का है।
(१) स्मृतिप्रमाण : (पहले अनुभव कीये हुए पदार्थ के) संस्कार के प्रबोध से उत्पन्न होनेवाला, अनुभूत अर्थ के विषयवाला "वह था" इत्यादि रुप में "वह" शब्द में जिसका वेदन होता है, वह स्मरण (स्मृति) कहा जाता है। जैसे कि, पहले देखी हुई मनोज्ञ तीर्थंकर की प्रतिमा का वर्तमान में दर्शन होती प्रतिमा में "वही तीर्थंकर की प्रतिमा है।" ऐसा वेदन होता है। उसे स्मरण कहा जाता है। (यहाँ पहले देखी हुई परमात्मा की मनोज्ञप्रतिमा के आत्मा में पडे हुए संस्कार के प्रबोध से अनुभूत अर्थ विषयक "वही तीर्थंकर की प्रतिमा है"-इत्याकारक संवेदन होता है। उसे स्मरण कहा जाता है।) __ (२) प्रत्यभिज्ञाप्रमाण : अनुभव और स्मरण से उत्पन्न हुए संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। अर्थात् अनुभव और स्मरण से उत्पन्न होनेवाला संकलनज्ञान कि जो पूर्व और उत्तर को जोडने का काम करके एकत्वसादृश्यज्ञान कराये उसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। अर्थात् सामने रहे हुए पदार्थ में पहले देखे हुए पदार्थ का अभेदअवगाहिज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। वह प्रत्यभिज्ञान अनेक प्रकार का है। सादृश्य प्रत्यभिज्ञान - "वह उसके समान है" इत्याकारक है । जैसे कि "वही यह देवदत्त है" और "गाय के समान गवय है।" वैलक्षण्यसादृश्य - "वह उससे विलक्षण है" इत्याकारक है। जैसे कि, गाय से विलक्षण भेंस है। प्रतियोगीप्रत्यभिज्ञान - "यह उसकी अपेक्षा से दूर, पास, छोटा, बडा है" इत्यादि रुप से होता है। जैसे कि यह उससे लम्बा है, यह छोटा है, कम वजन का है, ज्यादा वजन का है, बहोत दूर है। अग्नि तेज है, चंदन सुरभि है। "उसी अग्नि का अनुमान किया जाता है कि जो पहले देखी थी" तथा "वही शब्द द्वारा भी यह अर्थ कहा जाता है।" इत्यादि स्मरण सहकार से अनुमानजन्य
(F-83-84-85-86-87-88-89-)- तु० पा० प्र० प० । (G-1-2)- तु० पा० प्र० प० ।
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