________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५३, जैनदर्शन
दृढप्रहारि इत्यादि के साथ व्यभिचार आता है। नारद इत्यादि में मायादि का प्रकर्ष होने पर भी उनकी मुक्ति हुई है। इसलिए आपका हेतु व्यभिचारी बनता है । (६)
इसलिए किसी भी तरह से स्त्रीयों में हीनत्व होता नहीं है। इस प्रकार हीनत्वादि हेतु असिद्ध है ।
इसलिए निर्विवाद पुरुषो की तरह स्त्रीयों की भी मुक्ति माननी चाहिए। अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "स्त्रीयों की मुक्ति होती है। क्योंकि (मुक्तिप्रायोग्य) कारण सामग्री से अविकल (संपूर्ण) होती है, जैसे कि पुरुष । मुक्ति के कारण सम्यग्दर्शनादि (रत्नत्रयी) स्त्रीयों में संपूर्ण उपलब्ध होते है । इसलिए स्त्रीयों का मोक्ष होता है। इस तरह से मोक्षतत्त्व का विवरण पूरा होता है ।
ऐसे प्रकार की मुक्ति जिन को प्राप्त होती है, । उनको संसार में वापस आना पडता नहीं है । इसलिए "धर्मतीर्थ के प्रवर्तक ज्ञानी आत्मा परमपद (मोक्ष) में जाकर तीर्थधर्म की हानी देखकर पुन: भी आते है अवतार धारण करते है ।" यह अन्यदर्शन की मान्यता का भी खंडन हो जाता है | ॥५२॥
( मू. श्लो. ) एतानि नव तत्त्वानि यः श्रद्धत्ते स्थिराशयः । सम्यक्त्वज्ञानयोगेन तस्य चारित्रयोग्यता ।। ५३ ।।
१७७/८००
श्लोकार्थ: ये नव तत्त्वो के उपर स्थिर आशयवाला जो अडग श्रद्धा रखता है- विश्वास करता है, उसमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सद्भाव होने से चारित्र की योग्यता होती है । अर्थात् चारित्र की योग्यता विकसित होती है ।
पुनः
व्याख्या-एतानि-अनन्तरोदितानि नवसङ्ख्यानि तत्त्वानि यः स्थिराशयो-न शङ्कादिना चलचित्तः श्रद्धानस्य ज्ञानपूर्वकत्वाज्जानीते श्रद्धत्ते च - अवैपरीत्येन मनुते । एतावता जानन्नप्यश्रद्धधानो मिथ्यादृगेवेति सूचितम् । यथोक्तं श्रीगन्धहस्तिना महातर्फे " द्वादशाङ्गमपि श्रुतं विदर्शनस्य मिथ्या" इति । तस्य श्रद्धधानस्य सम्यक्त्वज्ञानयोगेन - सम्यग्दर्शनज्ञानसद्भावेन चारित्रस्य-सर्वसावद्यव्यापारनिवृत्तिरूपस्य देशसर्वभेदस्य योग्यता भवति, अत्र ज्ञानात्सम्यक्त्वस्य प्राधान्येन पूज्यत्वात्प्राग्निपातः अनेन सम्यक्त्वज्ञानसद्भाव एव चारित्रं भवति नान्यथेत्यावेदितं द्रष्टव्यम् ।। ५३ ।।
व्याख्या का भावानुवाद :
नजदीक में कहे हुए नौ तत्त्वो में शंकादि से चलचित्त नहीं है, वैसा स्थिराशयवाला व्यक्ति ज्ञानपूर्वक उन तत्त्वो को जानता है तथा उन नौ तत्त्वो को अविपरीत रुप से मानते है, वह व्यक्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भागी बनने के द्वारा चारित्र की योग्यता प्राप्त करती है - इस तरह से श्लोक का अन्वय करना ।
"जो नौ तत्त्वो को ज्ञानपूर्वक जानता है और नौ तत्त्वो को अविपरीत रुप से मानते है, वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करते है।" यह पद कहने द्वारा यह सूचित होता है कि जो नौ तत्त्वो को जानता होने पर भी श्रद्धा रखता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org