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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५४, जैनदर्शन
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भव्य जीवो को भी जहाँ तक तथाभव्यत्व का परिपाक न हो, तब तक रत्नत्रयी का अभाव होता है। तथाभव्यत्व का परिपाक होने से रत्नत्रयी की प्राप्ति होती है।
तात्पर्य यह है कि, जो (अपने उस) विवक्षित सम्यग्दर्शन आदि पर्यायरुप से परिणत होगा, उसे भव्य कहा जाता है। भव्य के (असाधारण) भाव (स्वरुप) को भव्यत्व कहा जाता है। (अर्थात् जिससे वह भव्य के रुप से पहचाना जाता है उसे भव्यत्व कहा जाता है।) सारांश में सिद्धिगमन की जिसमें योग्यता होती है, उसे भव्य कहा जाता है। सिद्धिगमन की योग्यता स्वरुप भव्यत्व है। यह भव्यत्व जीवो का अनादिकाल से रहनेवाला पारिणामिक = स्वाभाविक भाव है।
इस अनुसार से सामान्य रुप भव्यत्व को कहकर, अब उसके ही विशिष्ट स्वरुप को बताने के लिए कहते है - अनियत प्रकार से मोक्षगमन की योग्यता को तथाभव्यत्व कहा जाता है। अर्थात् अनियत प्रकार की मोक्षगमन की योग्यता को तथाभव्यत्व कहा जाता है।
कहने का मतलब यह है कि.... (मोक्षगमन की योग्यतास्वरुप) भव्यत्व ही स्व-स्वकाल, क्षेत्र, गुर्वादि द्रव्यस्वरुप सामग्री के भेद से अनेक जीवो में भिन्न-भिन्न होने पर ही तथाभव्यत्व कहा जाता है। अर्थात् सभी जीवो में मोक्षगमन की योग्यता समान होने पर भी उस योग्यता का परिपाक करनेवाली क्षेत्र, काल, गुर्वादि स्वरुप सामग्री का होनेवाला समवधान (प्रत्येक जीवो में) अनियत होने के कारण प्रत्येक जीव का भव्यत्व भिन्न-भिन्न माना जाता है और वही तथाभव्यत्व कहा जाता है। अन्यथा यदि ऐसा माना न जाये तो सर्व प्रकारो के द्वारा एकाकारयोग्यता होने से ही सभी भव्य जीवो की एकसाथ ही धर्मप्राप्ति इत्यादि मानना पडेगा । (कहने का मतलब यह है कि सर्व जीवो का तथाभव्यत्व भिन्न-भिन्न माना नहीं जायेगा, तो मोक्षगमन की योग्यता स्वरुप भव्यत्व तो सभी भव्यजीवो में समान होने से सभी भव्यजीवो की एकसाथ धर्मप्राप्ति आदि की प्राप्ति माननी पडेगी। परंतु वैसा नहीं दिखाई देता है। कोई कुछ खास क्षेत्र में, कुछ खास काल में, धर्मप्राप्त करता है, तो दूसरा कोई उससे अन्य क्षेत्र में अन्य काल में धर्म प्राप्त करता है। इत्यादि जो भिन्नता-विचित्रताएँ दिखाई देती है, वे प्रत्येक भव्यात्माओ के तथाभव्यत्व की भिन्नता के कारण है।)
तथाभव्यत्व की जो फल देने की अभिमुखता है, उसको तथाभव्यत्व का पाक कहा जाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति के लिए आवश्यक धर्मसामग्री का प्रदान करके उसके फल (सम्यग्दर्शनादि) की ओर अभिमुख करे, वह तथाभव्यत्व का परिपाक कहा जाता है।
सर्वकर्मो की स्थिति एककौडाकौडी सागरोपम की अंदर की है, ऐसे जो किसी भव्य को ज्ञान-दर्शनचारित्ररुप रत्नत्रयी की प्राप्ति होती है, वह भव्यात्मा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के योग से कर्मबंध के वियोग स्वरुप तथा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यक्त्व, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये अनंतपंचक के स्थानभूत मोक्ष का भाजन बनता है।
(यत्तदोर्नित्याभिसम्बधात्-यत् और तद् का नित्यसंबंध होता है। इस न्याय से श्लोक में यत् मात्र का उल्लेख होने पर भी अध्याहार से तत् का ग्रहण कर लेना । इसलिए जो कोई रत्नत्रयी को प्राप्त करता है,
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