________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
संतानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, संतानत्वात्, प्रदीपादिसंतानवत् । न चायमसिद्धो हेतु:, पक्षे वर्तमानत्वात् । नापि विरुद्धः, सपक्षे प्रदीपादौ सत्त्वात् । नाप्यनैकान्तिकः, केवलपरमाण्वादावप्रवृत्तेः नापि कालात्ययापदिष्टः, विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षानुमानयोरत्रासंभवात् । ननु संतानोच्छेदे हेतुर्वक्तव्य इति चेत् ? F-11 उच्यते, निरन्तरशास्त्राभ्यासात्कस्यचित्पुंसस्तत्त्वज्ञानं जायते, तेन च मिथ्याज्ञाननिवृत्तिर्विधीयते, तस्य निवृत्तौ तत्कार्यभूता रागादयो निवर्तन्ते, तदभावे तत्कार्या मनोवाक्कायप्रवृत्तिर्व्यावर्तते, तद्व्यावृत्तौ च धर्माधर्मयोरनुत्पत्तिः 1 आरब्धशरीरेन्द्रियकार्ययोस्तु सुखादिफलोपभोगात्प्रक्षयः । अनारब्धशरीरादिकार्ययोरप्यवस्थितयोस्तत्फलोपभोगादेव प्रक्षयः । ततश्च सर्वसंतानोच्छेदान्मोक्ष इति स्थितिम् ।।
व्याख्या का भावानुवाद :
मोक्ष में जीवो के सुखमयत्व के विषय में वादियों में तीन प्रकार से विवाद है । (१) वैशेषिकोने कहा है कि-मोक्ष में बुद्धि इत्यादि आत्मा के विशेषगुणो का उच्छेद होने से मोक्ष में आत्मा सुखमय किस तरह से हो सकता है ? (२) बौद्धो ने कहा है कि - मोक्षावस्था में चित्तसंतान का अत्यंत उच्छेद होने से आत्मा का सद्भाव ही नहीं है, तो सुख किस तरह से हो सकता है ? ( ३ ) सांख्यो ने कहा है कि - मुक्ति में आत्मा भोक्ता नहीं है, तो मुक्ति में सुखमय किस तरह से हो सकता है ? (सांख्यो ने आत्मा को नित्य मानकर भी वहाँ सुख चाहे हो परंतु आत्मा उसको भुगतता नहीं है । तो सुखमय किस तरह से हो सकेगा ? ऐसा माना है ।)
उसमें प्रारंभ में वैशेषिको अपनी बुद्धि की विशेषता बताते हुए कहते है ।
पूर्वपक्ष (वैशेषिक ) : मोक्ष में आत्मा की विशुद्ध ज्ञानादिस्वभावता संगत होती नहीं है। क्योंकि बुद्धि आदि विशेषगुणो के उच्छेद स्वरुप मोक्ष है। वह इस तरह से है - प्राप्त हुआ तत्त्वज्ञान परिपाक पाने पर भी बुद्धि इत्यादि जीव के नौ विशेषगुणो का उच्छेद होने से प्रत्यक्षादिप्रमाण से स्वीकार किये गये = सिद्ध हुए जीवस्वरुप में स्वरुप से आत्मा का अवस्थान हो, उसको मोक्ष कहा जाता है । अर्थात् तत्त्वज्ञान से नौ गुणो का उच्छेद होने से आत्मा का आत्मा के स्वरुप में अवस्थान होना उसे मोक्ष कहा जाता है। जीव के बुद्धि इत्यादि नौ गुणो के उच्छेद में यह प्रमाण है - "आत्मा के नौ विशेष गुणो का प्रवाह ( संतान ) अत्यंत उच्छेद को प्राप्त करता है । क्योंकि प्रवाह (संतान) है । जैसे कि, प्रदीप इत्यादि का प्रवाह ।"
अ.
ब.
१४७/७७०
“विरुद्धथायं हेतुः, शब्दबुद्धिप्रदीपादिषु अत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव संतानत्वस्य भावात् ।। " सम्मति० टी० । न्यायकुमु० । प्रमेयक० । रत्नाकराव० - ७/५७ ।
“यदि हि मोक्षावस्थायां शिलाशकलकल्पः अपगतसुखसंवेदनलेशः पुरुषः संपद्यते तदा कृतं मोक्षेण [ न्यायकुमु० पृ. ८२८ ]
( F-11) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org