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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
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तिरछी और उर्ध्व गति कर्म के कारण उत्पन्न होती है, परंतु उर्ध्वगति जीव का धर्म है। वह उर्ध्वगति क्षीणकर्मोवाले आत्माओंकी होती है।
प्रश्न : लोक के अग्रभाग तक ही जीव की गति क्यों होती है ? उससे उपर जीव क्यों गति नहीं कर सकता है?
उत्तर : अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव की वहाँ गति होती नहीं है। धर्मास्तिकाय गति का परम (अपेक्षा) कारण है । ॥१-८॥" धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षा कारण है, वह पहले भी सिद्ध किया ही है।
ननु भवतु कर्मणामभावेऽपि पूर्वप्रयोगादिभिर्जीवस्योर्ध्वगतिः, तथापि सर्वथा शरीरेन्द्रियादिप्राणानामभावान्मोक्षे जीवस्याजीवत्वप्रसङ्गः । यतो जीवनं प्राणधारणमुच्यते, तञ्चेन्नास्ति, तदा जीवस्य जीवनाभावादजीवत्वं स्यात्, अजीवस्य च मोक्षाभाव इति चेत् ? न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, प्राणा हि द्विविधाः, द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च । मोक्षे च द्रव्यप्राणानामेवाभावः, न पुनर्भावप्राणानाम् । भावप्राणाश्च मुक्तावस्थायामपि सन्त्येव । यदुक्तम्-“यस्मात्क्षायिकसम्यक्त्ववीर्यदर्शनज्ञानैः । आत्यन्तिकैः स युक्तो निर्द्वन्द्वेनापि च सुखेन ।।१ ।। ज्ञानादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स तैर्हि । तस्मात्तज्जीवत्वं नित्यं सर्वस्य जीवस्य ।।२।।" ततश्चानन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखलक्षणं जीवनं सिद्धानामपि भवतीत्यर्थः । सुखं च सिद्धानां सर्वसंसारसुखविलक्षणं परमानन्दमयं ज्ञातव्यम् । उक्तं च“नवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सुक्खं आव्वाबाहं उवगयाणं ।।१।। सुरगणसुहं समग्गं सव्वद्धा पिण्डियं अनन्तगुणं । नवि पावइ मुत्तिसुहं णन्ताहिवि वग्गवग्गूहिं ।।२।। सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धा पिण्डिउं जइ हविज्जा । सोऽणन्तवग्गभइओ सव्वागासे न माइज्जा ।।३ ।।” तथा योगशास्त्रेऽ-प्युक्तम्-“सुरासुरनरेन्द्राणां यत्सुखं भुवनत्रये । तत्स्यादनन्तभागेऽपि न मोक्षसुखसंपदः ।।१ ।। स्वस्वभावजमत्यक्षं यस्मिन्वै शाश्वतं सुखम् । चतुर्वर्गाग्रणीत्वेन तेन मोक्षः प्रकीर्तितः ।।२।।" व्याख्या का भावानुवाद :
शंका : कर्म का अभाव होने पर भी पूर्वप्रयोग आदि द्वारा जीव की उर्ध्वगति चाहे हो । तो भी सर्वथा शरीरादि प्राणो का अभाव होने से मोक्षावस्था में जीव में अजीवत्व आ जायेगा । क्योंकि प्राणो का धारण करना उसे ही जीवन कहा जाता है। मोक्ष में शरीरादि प्राण नहीं है, तो जीव के जीवन का ही अभाव होने से जीव अजीव बन जायेगा और अजीव का मोक्ष होता नहीं है।
समाधान : “ ऐसा मत कहना । शरीरादि का आत्यंतिक वियोग वह मोक्ष" ऐसा हमने जो
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