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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
कहा था, उसमें आपने शंका खडी की है वह योग्य नहीं है। क्योंकि वैसा कहने के पीछे का हमारा अभिप्राय आपने अब तक विवक्षित रुप से जाना ही नहीं है। प्राण दो प्रकार के है। (१) द्रव्यप्राण और (२) भावप्राण । मोक्षावस्था में शरीरादि द्रव्यप्राणो का ही अभाव होता है। परंतु ज्ञानादि भावप्राणो का अभाव नहीं है। मोक्षावस्था में भावप्राण तो होते ही है।
जिससे अन्य ग्रंथ में कहा है कि "सभी कर्म का क्षय होने से वे मुक्तात्मा क्षायिकसम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंतदर्शन इन (पूर्णकक्षा पर पहुंचे हुए) आत्यंतिक गुणो से तथा निर्द्वन्द्वसुख द्वारा भी युक्त होते है। (जिसमें दुःख की मिलावट नहीं है तथा जो सुख आने के बाद चला जाता नहीं उसे निर्द्वन्द्वसुख कहा जाता है।) ज्ञानादि भावप्राण है। मुक्तात्मा भी उन ज्ञानादि भावप्राणो के द्वारा जीता है। इसलिए सभी जीवो का जीवत्व नित्य होता है। (अपि शब्द से मुक्तात्मा के अतिरिक्त जीवो को भी जान लेना ।) ॥१-२॥"
इसलिए अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुखस्वरुप जीव सिद्धो को भी होता है। सिद्धो का सुख सभी सांसारिक सुख से विलक्षण परमानंदस्वरुप होता है वह जानना। ___ अन्य शास्त्र में भी कहा है कि - "अव्याबाधसुख को पाने वाले सिद्धो का जो सुख है, वह सुख मनुष्यो का भी नहीं है या सर्वदेवो का भी नहीं है। यदि सर्वदेवो के समूह का त्रिकालवर्ती सुख इकट्ठा करके उसको अनंतगुना किया जाये तो भी मुक्ति के सुख से अनंत वे भाग का भी होता नहीं है। यदि सिद्धो के सुख को इकट्ठा करके उसके अनंतवें भाग का बनायें तो भी वह लोकालोक प्रमाण आकाश में समा नहीं सकता। ॥१२-३॥" तथा योगशास्त्र में कहा है कि -
"तीन भुवन में सुरेन्द्रो, नरेन्द्रो का जो सुख है, वह सुख मोक्षसुख की संपत्ति से अनंतवें भाग का भी नहीं है। मोक्ष का सुख स्वाभाविक है। इन्द्रियो से अतीत अतीन्द्रिय है। वह नित्य है, इसलिए वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरुप चार पुरुषार्थ में परमपुरुषार्थ है तथा चतुर्वर्ग अग्रणी (शिरोमणी) कहा जाता है । ॥१-२॥"
अत्र सिद्धानां सुखमयत्वे त्रयो विप्रतिपद्यन्ते । तथाहि-आत्मनो मुक्तौ बुद्ध्यायशेषगुणोच्छेदात्कथं सुखमयत्वमिति वैशेषिकाः १ । अत्यन्तचित्तसन्तानोच्छेदत आत्मन एवासंभवादिति सौगताः २ । अभोक्तृत्वात्कथमात्मनो मुक्तौ सुखमयत्वमिति सांख्याः ३ । अत्रादौ वैशेषिकाः स्वशेमुषीं विशेषयन्ति । ननु मोक्षे विशुद्धज्ञानादिस्वभावता आत्मनोऽनुपपन्ना, बुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदरूपत्वान्मोक्षस्य । तथाहि . प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतिपन्ने जीवस्वरूपे परिपाकं प्राप्ते तत्त्वज्ञाने F-नवानां जीवविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदे स्वरूपेणात्मनोऽवस्थानं मोक्षः । तदुच्छेदे च प्रमाणमिदं । यथा, F-10नवानामात्मविशेषगुणानां
(F-9-10) - तु० पा० प्र० प० ।
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