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षड्दर्शन समुच्चय भाग २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
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उसमें जो सहभूस्वभाववाली वस्तु है, वह कभी भी उत्कृष्ट बाधक के सद्भाव में निरन्वय विनाश प्राप्त नहीं करती है। ज्ञान आत्मा का सहभूस्वभाव है । आत्मा परिणामिनित्य है । इसलिए अत्यंत प्रकर्षवाले ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में भी ज्ञान का निरन्वयविनाश होता नहीं है। परंतु आत्मा का रागादिस्वभाव लोभादिकर्म के विपाकोदयस्वरुप सहकारि के कारण उत्पन्न हुआ है । इसलिए ( सहकारि ऐसे) कर्म का निर्मूलनाश होने पर वे रागादिदोष भी निर्मूलनाश पाते है ।
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प्रयोग : "जो सहकारि से उत्पन्न हुए स्वभाव है, वे प्रतिपक्षभावना की मंदता में अपकर्षवाले होते है और प्रतिपक्षभावना की प्रकर्षता वृद्धि में निरन्वयविनाश प्राप्त करते है । जैसे कि, प्रतिपक्षभूत वह्नि की वृद्धि में रोमहर्षादि का संपूर्ण विनाश ।"
"प्रतिपक्षभावना से सहकारिकर्म में से उत्पन्न हुए रागादि अपकर्ष को प्राप्त करते है ।" यर्हां “सहकारिसंपाद्या" विशेषण सहभू स्वभावरुप ज्ञानादि के व्यवच्छेद के लिए है । वैसे ही "जो अनादिभाव है वह विनाश प्राप्त करता नहीं है।" ऐसे प्रमाण का आपने उपन्यास किया था, वह भी प्रमाणभूत नहीं है। क्योंकि प्रागभाव से हेतु व्यभिचारी बनता है। क्योंकि प्रागभाव अनादि होने पर भी विनाश पाता है। यदि प्रागभाव का विनाश होता न हो, तो कार्य की उत्पत्ति ही नहीं होगी। इस प्रकार, प्रागभाव अनादि होने पर भी विनाश प्राप्त करता है। इसलिए आपका प्रमाण सत्य नहीं है। उसी ही तरह से मुवर्ण--मिट्टी के संयोग से भी हेतु व्यभिचारी बनता है। क्योंकि सुवर्ण-मिट्टी का संयोग अनादि होने पर भी क्षार - मिट्टीपुटपाकादि की प्रक्रिया से उस संयोग का नाश होता दिखाई देता है ।
अथ रागादयो धर्मो धर्मिण आत्मनो भिन्ना अभिन्ना वा ? भिन्नाश्चेत्, तदा सर्वेषां वीतरागत्वसिद्धत्वप्रसङ्गः, रागादिभ्यो भिन्नत्वात्, मुक्तात्मवत् । अभिन्नाश्चेत्, तदा तेषां क्ष धर्मिणोऽपि क्षय इति, तदयुक्तं, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात् । कथमिति चेत् ?, उच्यते । धर्मिधर्माणां न भेद एव, अभेदस्यापि सत्त्वात् । नाप्यभेद एव, भेदस्यापि सद्भावात् । ततो नोक्तदोषावकाश इति 1 अथ कार्मणशरीरादेः सर्वथावियोगे कथं जीवस्योर्ध्वमालोकान्तं गतिरिति चेत् ? पूर्वप्रयोगादिभिस्तस्योर्ध्वगतिरिति ब्रूमः । तदुक्तं तत्त्वार्थभाष्ये-“तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति 1 पूर्वप्रयोगासङ्गत्वबन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः ।। १ ।। कुलालचक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह, तथा सिद्धगतिः स्मृता ।।२।। मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः । कर्मसङ्गविनिर्मोक्षात्, तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। ३ ।। एरण्डयन्त्रपेडासु, बन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात्सिद्धस्यापि तथेष्यते ।।४।। उर्ध्वगौरवधर्माणो, जीवा इति जिनोत्तमैः 1 अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् । । । ५ । । यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च, लोष्टवाय्वग्निवीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते, तथोर्ध्वगतिरात्मनः ।। ६ ।। अधस्तिर्यक् तथोर्ध्वं च जीवानां कर्मजा
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