________________
१२८/७५१
___ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
(३) शब्द आकाश का गुण नहीं है। क्योंकि सभी दिशाओं से (सभी दिशा में रहनेवाले लोग से) ग्राह्य है। जैसे कि, प्रदीप।
(४) शब्द आकाश का गुण नहीं है। क्योंकि शब्दो का अभिभव होता है। जैसे कि, सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होते तारादि का समूह ।
(५) शब्द आकाश का गुण नहीं है। क्योंकि शब्द (दूसरोका) अभिभव करता है। जैसे कि, सूर्यमंडल का प्रकाश ।
बहोत जोर से बोले गये शब्द अल्प आवाज की मात्रावाले शब्द का अभिभव करते है, वह प्रसिद्ध ही है। इसलिए शब्द पुद्गलका परिणाम ही है।तथा तादृशधर्म अमूर्त द्रव्य में देखने को नहीं मिलते है। इसलिए शब्द मूर्त भी है।
शंका : शंख और शंख के टूकडे पौद्गलिक होने से उसका रुप आंख से उपलब्ध होता है, इस तरह शब्द भी जो पौद्गलिक है, तो उसका रुप भी आंख से उपलब्ध क्यों नहीं होता?
समाधान : शब्द पौगलिक होने से उसमें रुप इत्यादि होने पर भी सूक्ष्म परिणमन के कारण आंख से प्रत्यक्ष होते नहीं है। तथा (गुलाब की अंदर रहे हुए आंखो से गंध के परमाणुओ में रुपादि है। परंतु वह अनुद्भत होने से दृष्टिगोचर बनते नहीं है। इस तरह से शब्द के रुपादि सूक्ष्म तथा अनुद्भूत होने के कारण दृष्टिगोचर होते नहीं है।
गंधादि की पुद्गल परिणामता प्रसिद्ध ही है। अर्थात् गंध इत्यादि पुद्गल का परिणाम विशेष है, यानी कि पौगलिक है। वह प्रसिद्ध ही है। ___तम छायादीनां त्वम्-तमः पुद्गलपरिणामो दृष्टिप्रतिबन्धकारित्वात् कुड्यादिवत्,
आवरकत्वात् पटादिवत् । छायापि शिशिरत्वात आप्यायकत्वात् जलवातादिवत् । बछायाकारेण परिणममानं प्रतिबिम्बमपि पौद्गलिकं, साकारत्वात् । अथ कथं कठिनमादर्श प्रतिभिद्य मुखतो निर्गताः पुद्गलाः प्रतिबिम्बमाजिहत इति चेत् ? उच्यते, तत्प्रतिभेदः कठिनशिलातलपरिस्रुतजलेनायस्पिण्डेऽग्निपुद्गलप्रवेशेन शरीरात्प्रस्वेदवारिलेशनिर्गमनेन च व्याख्येयः । कआतपोऽपि द्रव्यं तापकत्वात्, स्वेदहेतुत्वात्, उष्णत्वात्, अग्निवत् । उद्योतश्च चन्द्रिकादिव्यं आह्लादकत्वात् जलवत्, प्रकाशकत्वात्, अग्निवत् । तथा पद्मरागादीनामनुष्णाशीत उद्योतः । अतो मूर्तद्रव्यविकारस्तम छायादिः । इति सिद्धाः अ. “तमस्तावत्पुद्गलपरिणामः दृष्टिप्रतिबन्धकारित्वात् कुड्यादिवत्, आवरकत्वात् पटादिवत् ।" - तत्वार्थ० भा.व्या० ।। ब. “द्रव्यं छायाद्यन्धकारः घटाद्यावरकत्वात् काण्डपटादिवत् । गतिमत्त्वाचासौ वाणादिमद्रव्यम् ।।" न्यायकुमु० ।। क. “आतपः उष्णप्रकाशलक्षणः ।" त० वा०५/२४ । ड उद्योतष्टान्द्रमणिखद्योतादिविषयः ।" त. वा०५/२४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org