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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५०, जैनदर्शन
की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है? तथा पशु हिंसादि क्रियाओ का मांस भक्षणादि प्रयोजन सिद्ध होने से अदृष्ट ऐसे पाप की कल्पना करने की क्या जरुरत है ? __उपरांत, सभी लोग भी ज्यादातर खेती इत्यादि क्रियाओ के तथा हिंसादि क्रियाओं के दृष्ट फलमात्र में ही प्रवर्तित होते है। दानादिक्रिया के अदृष्ट फल में तो अल्प लोग ही प्रवर्तित होते है, ज्यादा लोग प्रवर्तित नहीं होते है। इसलिए कृषि, हिंसादि अशुभक्रियाओ के अदृष्टफल का अभाव होने से दानादि शुभक्रियाओ के अदृष्टकल का भी अभाव ही हो जायेगा। इसलिए पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु नहीं है।
समाधान : ऐसा मत कहना। क्योंकि जिस कारण से ही दृष्टफलवाली कृषि इत्यादि क्रियाओ में बहोत लोग प्रवर्तित होते है तथा अदृष्टफलवाली दानादि शुभ क्रियाओ में अल्प ही लोग प्रवर्तित होते है, उसी कारण से ही कृषि और हिंसादि दृष्टफलवाली क्रियायें अदृष्ट ऐसे फलवाली भी स्वीकार करनी ही चाहिए। (क्योंकि आप ने अल्प लोगो को अदृष्टफलवाली क्रिया में प्रवर्तित होते स्वीकार किया है।) तथा पाप स्वरुप अदृष्टफल के बिना अनंतकाल से चली आ रही जीव की सत्ता संगत नहीं होती है। वे लोग कृषि, हिंसा आदि क्रिया निमित्तक अनभिलषित भी पाप स्वरुप अदृष्टफल को बांधकर अनंत संसार में परिभ्रमण करते हुए अनंतकाल से संसार में रहते है।
उपरांत, यदि कृषि और हिंसादि अशुभक्रियाओं का पाप स्वरुप अदृष्टफल स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो उसके सभी कर्ता अदृष्टफल का अभाव होने से मरण के बाद तुरंत ही बिना प्रयत्न से मुक्ति में जायेगा। इसलिए प्रायः पूरा संसार शून्य ही बन जायेगा । इसलिए संसार में कोई दुःखी ही मिलेगा नहीं तथा दानादिक्रियायें करनेवाले और उसके शुभविपाक को ही अनुभव करनेवाले केवल सभी जगह पे उपलब्ध होंगे। __इस संसार में बहोत लोग दुःखी दिखते है। परंतु अल्प लोग ही सुखी दिखते है। उससे लगता है कि दुःखी जीवो को कृषि, वाणिज्य, हिंसादि अशुभक्रियानिमित्तक अदृष्ट पापस्वरुप फल का विपाक है और सुखी जीवो को दानादि शुभक्रिया निमित्तक अदृष्ट पुण्यस्वरुप फल का विपाक है।
शंका : संसार में सुखी जीव बहोत ज्यादा हो और दुःखी जीव अल्प हो - ऐसा व्यत्यय क्यों होता नहीं
समाधान : व्यत्यय न होने का कारण यह है कि, संसार में अशुभक्रियाओ का आरंभ करनेवाले लोग ही ज्यादा होते है। शुभक्रियाओ का आरंभ करनेवाले कम ही होते है। इस तरह से कारणानुमान है।
अथ कार्यानुमानम् - जीवानामात्मत्वाविशेषेऽपि नरपश्चादिषु देहादिवैचित्र्यस्य कारणमस्ति, कार्यत्वात्, यथा घटस्य मृद्दण्डचक्रचीवरादिसामग्रीकलितः कुलालः । न च दृष्ट एव मातापितादिकस्तस्य हेतुरिति वक्तव्यं, दृष्टहेतुसाम्येऽपि, सुरूपेतरादिभावेन देहादीनां वैचित्र्यदर्शनात्, तस्य चादृष्टशुभाशुभकर्माख्यहेतुमन्तरेणाभावात् । अत एव शुभदेहादीनां
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