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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५१, जैनदर्शन
व्याख्या का भावानुवाद :
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगस्वरुप आश्रवो का सम्यग्दर्शन - विरति -प्रमादपरिहारक्षमादि-गुप्ति-यतिधर्म-अनुप्रेक्षा (भावना) आदि द्वारा निरोध करना उसे संवर कहा जाता है। यहाँ आत्मा के मिथ्यात्वादि मलिनपर्यायो का आत्मा के सम्यग्दर्शनादिविशुद्ध पर्यायो के द्वारा निरोध करना उसे संवर कहा जाता है । इस तरह से पर्याय के कथन द्वारा संवर की व्याख्या की गई है।
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आत्मा में (आने वाले) कर्म के उपादानकारणभूत परिणाम के अभाव को संवर कहा जाता है । अर्थात् आत्मा में कर्म का आवागमन मिथ्यात्वादि मलिनपरिणामो से होता है, उस परिणामो के अभाव को संवर कहा जाता है ।
संवर दो प्रकार का है । (१) देशसंवर, (२) सर्वसंवर । बादर - सूक्ष्म मन-वचन-काया स्वरुप योग के निरोधकाल में सर्वसंवर होता है। अर्थात् अयोगिगुण स्थानक पे सूक्ष्म या बादर सभी मन-वचन-काया के व्यापार का जहाँ निरोध होता है, उसे सर्वसंवर कहा जाता है। उसके सिवा के शेषकाल में चारित्र स्वीकार के प्रारंभ से देशसंवर होता है ।
अब बंधतत्त्व को कहते है - आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गलो का दूध - पानी की तरह परस्पर एकमेक हो जाना उसे बंध कहा जाता है । अथवा जिसके द्वारा आत्मा बंधाता है अर्थात् ज्ञानावरणीयादि के द्वारा परतंत्रता को प्राप्त करता है, उस पुद्गलकर्म के परिणाम को बंध कहा जाता है ।
शंका : शरीर के उपर पहनी हुई कंचुकि (चोली) या सांप के शरीर उपर रही हुई कांचरी के संयोग समान जीव और कर्म के बीच का संबंध जैसे गोष्ठामाहिलजीने माना है वैसे आप भी मानते हो, या दोनो बीच अन्य प्रकार का संबंध मानते हो ?
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समाधान : हमने कर्मवर्गणा के स्कन्धो को या जीव का परस्पर अनुप्रवेश स्वरुप संबंध माना है अर्थात् वह्नि और लोह के गोले का अथवा दूध-पानी के संबंध जैसा परस्पर अनुप्रवेश स्वरुप ही संबंध जीव और कर्म का माना है, वैसा जानना । परंतु शरीर - कञ्चुकी या कञ्चुक के संयोग जैसा या अन्य प्रकार का कोई संयोग जैसा संयोग माना नहीं है।
शंका : अमूर्त आत्मा को हस्त आदि का असंभव होने से आदानशक्ति का अभाव है। तो आत्मा कर्म का ग्रहण किस तरह से कर सकता है ?
समाधान : आपकी शंका ही अयोग्य है। इसलिए आपकी इस विषय में अनभिज्ञता मालूम होती है। क्योंकि किसके द्वारा आत्मा की सर्वथा अमूर्तता स्वीकार की गई है ? कर्म और जीव का संबंध अनादिकाल से है। उससे दोनो के बीच एक अमूर्त और एक मूर्त होने पर भी दूध - पानी की तरह एकत्व का परिणाम होने पर आत्मा मूर्त जैसा होता है और कर्मग्रहण में प्रवर्तित होता है तथा आत्मा हाथ इत्यादिके व्यापार से कर्मग्रहण में प्रवर्तित होता नहीं है। (क्योंकि वह कर्म हाथ से उठाने की चीज नहीं है, वह तो पुद्गल का अत्यंत
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