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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५०, जैनदर्शन
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पुण्यकार्यत्वं, इतरेषां तु पापकार्यत्वमिति कार्यानुमानम् । सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्वा पुण्यपापयोरुभयोः सत्ता प्रतिपत्तव्या । विशेषार्थिना तु विशेषावश्यकटीकावलोकनीयेति ।। व्याख्या का भावानुवाद :
अब कार्यानुमान बताते है। - "सभी जीवो में आत्मा एक होने पर भी कोई मनुष्य है, कोई पशु है इत्यादि जाति आदि में तथा कोई गोरा है, कोई कूबडा है इत्यादि शरीर आदि में जो विचित्रता है, उसका कोई कारण है। क्योंकि वह कार्य है। जैसे कि छोटे-बडे घट की विचित्रता में मिट्टी, दंड, चक्र, चीवरादि सामग्री से युक्त कुम्हार कारण है।" - इस प्रकार मनुष्य इत्यादि जाति में तथा शरीर की रचना में जो विचित्रता है, उसका कोई अदृष्ट कारण है। इसलिए दृष्ट ऐसे माता-पितादि, उस विचित्रता में कारण है ऐसे कहना नहीं चाहिए। क्योंकि (मातापितादि) हेतु समान होने पर भी (एक ही माता के संतानो में) कोई कूबडा है, कोई गोरा है, ऐसी देहादि की विचित्रता देखने को मिलती है और उस देहादि की विचित्रता का अदृष्ट ऐसे शुभ या अशुभकर्म नाम के हेतु के बिना दूसरे किसीका अभाव है। अर्थात् शुभाशुभ अदृष्ट कर्म के बिना वह विचित्रता संगत होती नहीं है।
इसलिए शुभदेहादि पुण्यकर्म का कार्य है और अशुभदेहादि पापकर्म का कार्य है। इस तरह से कार्यानुमान है।
अथवा सर्वज्ञ भगवंत के वचन प्रामाण्य से पुण्य-पाप दोनो की सत्ता स्वीकार करनी चाहिए। इस विषय में विशेष जिज्ञासुओ को विशेषावश्यक भाष्य की टीका देखनी चाहिए।
अथास्रवमाह । “मिथ्यात्वाद्यास्तु हेतवः” इत्यादि । असद्देवगुरुधर्मेषु सद्देवादिबुद्धिमिथ्यात्वम् । हिंसाद्यनिवृत्तिरविरतिः । प्रमादो मद्यविषयादिः । कषायाः क्रोधादयः । योगा मनोवाक्कायव्यापाराः । अत्रैवमक्षरघटना। मिथ्यात्वाविरत्यादिकाः पुनर्बन्धस्य ज्ञानावरणीयादि-कर्मबन्धस्य ये हेतवः, स आस्रवो जिनशासने विज्ञेयः । आस्रवति कर्म एभ्यः स आस्रवः । ततो मिथ्यात्वादिविषया मनोवाक्कायव्यापारा एव शुभाशुभकर्मबन्धहेतुत्वादास्रव इत्यर्थः । अथ बन्धाभावे कथमास्रवस्योपपत्तिः, आस्रवात् प्राग्बन्धसद्भावे वा न तस्य बन्धहेतुता, प्रागपि बन्धस्य सद्भावात् । नहि यद्यद्धेतुकं तत्तदभावेऽपि भवति, अतिप्रसङ्गात् । असदेतत्, यत आस्रवस्य पूर्वबन्धापेक्षया कार्यत्वमिष्यते, उत्तरबन्धापेक्षया च कारणत्वम् । एवं बन्धस्यापि पूर्वोत्तरानवापेक्षया कार्यत्वं कारणत्वं च ज्ञातव्यं, बीजाङ्कुरयोरिव बन्धास्रवयोरन्योन्यं कार्यकारणभावनियमात् । नचैवमितरे-तराश्रयदोषः, प्रवाहापेक्षयानादित्वात् । अयं चास्रवः
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