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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५०, जैनदर्शन
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को देनेवाले कर्मपुद्गल को पाप कहा जाता है। उस पापकर्म के पुद्गल जीव के साथ संबद्ध रहते है।
यद्यपि यहाँ आगे कहा जायेगा उस बंधतत्त्व में पुण्य और पाप का समावेश हो जाता होने पर भी उन दोनो का पृथक् निर्देश प्रतिवादियों के द्वारा पुण्य और पाप के विषय में की गई अनेकविध कल्पनाओं के निराकरण के लिए है।
उन दोनो तत्त्व के विषय में अन्य मत इस अनुसार से है। कुछ परवादि "एक मात्र पुण्य ही है पाप नहीं है।" ऐसा कहते है। दूसरे कुछ प्रतिवादि कहते है कि... 'पाप एक ही तत्त्व है, पुण्य नहीं है।' दूसरे कुछ वादि कहते है कि, “अन्योन्य एकदूसरे में समावेश पाये हुए स्वरुपवाला है। जैसे मेचकमणि में अनेक रंगो का समावेश हुआ है, वैसे सुखमिश्रित दुःख तथा दुःखमिश्रित सुखरुप फल को देनेवाले पुण्यपाप नामकी एक ही वस्तु है। उपरांत अन्यवादि कहते है कि... 'मूल से ही कर्म जैसा कोई तत्त्व नहीं है। यह सभी जगत का प्रपंच स्वभावसिद्ध है।'
ये सभी मत सत्य नहीं है। क्योंकि सभी जीवो के द्वारा सुख और दुःख भिन्न भिन्न रुप से महसूस किये जाते है। इसलिए उसके कारणभूत पुण्य और पाप को भी स्वतंत्र रुप से स्वीकार करना चाहिए। परंतु दोनो में से एक को या मिश्ररुप से भी दोनो को मानना नहि चाहिए।
शंका : (नास्तिको तथा वेदान्तियों ने कर्म की सत्ता को माना नहीं है। उनका अभिप्राय है कि) पुण्य और पाप आकाशपुष्प की तरह असत् ही मानने चाहिए। परंतु सद्भूत नहीं मानने चाहिए। तब उसके फल भुगतने के स्थानभूत स्वर्ग और नर्क की कल्पना भी निरर्थक है।
समाधान : पुण्य और पाप के अभाव में सुख-दुःख की उत्पत्ति निर्हेतुक माननी पडेगी। किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति निर्हेतुक नहीं हो सकती । इसलिए पुण्य-पाप के अभाव में सुख और दुःख की उत्पत्ति का भी अभाव मानना पडेगा और वह प्रत्यक्षविरुद्ध है। क्योंकि मनुष्य के रुप में समान होने पर भी उसमें कुछ लोग स्वामीपन का अनुभव करते है और कुछ लोग सेवक(नौकर)पन का अनुभव करते है। एक व्यक्ति लाखो लोगो का भरणपोषण करता है तो कोई अपने उदर को भी भरने में समर्थ होते नहीं है। कोई देवो की तरह निरतंर सुंदर भोगविलास का अनुभव करते है, तो कोई नारको की तरह दुःख से उब गये हुए चित्तवृत्तिवाले होते है। ऐसी विचित्रता में नियामक कोई तत्त्व मानना ही पडेगा। इसलिए महसूस होते सुख-दुःख में कारणभूत पुण्य-पाप का स्वीकार करना चाहिए और पुण्य-पाप का स्वीकार करने से, उन दोनों का फल भुगतने के विशिष्टस्थानभूत स्वर्ग और नरक का भी स्वीकार करना चाहिए । अन्यथा अर्धजरती न्याय का प्रसंग आयेगा। अर्थात् कोई वृद्ध स्त्री के मुख इत्यादि सुंदर अंगो को चाहना तथा स्तनादि शिथिल अवयवो को न चाहना, वह अर्धजरती न्याय है, वैसे पुण्य और पाप को मानना और उसके फलभूतस्थान स्वर्ग और नर्क को नहीं माना, वह अर्धजरती न्याय है।
अनुमान प्रयोग : सुख-दुःख कारणपूर्वक होता है। क्योंकि कार्य है। जैसे कि, अंकुर । जैसे अंकुर रुप
अ. यस्तुल्यसाधनानां फले विशेषः न सो विना हेतुम् । कार्यत्वात् गौतम घट इव हेतु च तत् कर्म ।।
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