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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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विशेष को पाने से सभी इन्द्रियो से ग्राह्य बनते नहीं है। वे एकजातीय परमाणुओ में सभी इन्द्रियो से अग्राह्यता आई, उसमें परिणाम विशेष की उत्पत्ति कारण है,नहि कि जातिभेद, क्योंकि जाति तो समान ही है। (इस बात को सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में जरा अलग रुप से बताई गई है । "पृथिव्यप्तेजोवायुमनांसि पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भवन्ति, रुपरसगन्धस्पर्शवत्त्वात् ।...... न च केचित्पार्थिवादिजाति विशेषयुक्ताः परमाणवः सन्ति, जातिसंकरेणारम्भदर्शनात् । सर्वार्थसि० ४१३ ॥
उपरांत शब्दादि की पौद्गलिकता इस अनुसार जानना । शब्द इत्यादि पुद्गल द्रव्य के परिणाम है। अर्थात् पौद्गलिक है। शब्द मूर्त होने के कारण पौद्गलिक है। शब्द को उत्पन्न करते वक्त हृदय, गला, कंठ, मस्तक, जीभ का अंतिम मूल भाग, दांत आदि में प्रयत्नविशेष की आवश्यकता है। जैसे पीपल खाने से गला विकृत हो जाता है, वैसे शब्द की उत्पत्ति के वक्त भी कंठादि में विकृति पेदा होती है। इस प्रकार मूर्त द्रव्यो में = द्रव्यान्तर में विक्रिया पेदा करने का सामर्थ्य होने के कारण पीपल की तरह शब्द भी मूर्त है।
तथा भेरी, नगारा, झालर, तबला इत्यादि को बजाने से उसमें कंपन पैदा होता है। यदि शब्द अमूर्त हो तो मूर्त भेरी आदि में कभी भी कंपन पैदा नहि कर सकेंगे। इस प्रकार भेरी इत्यादि के कंपनो से शब्द में मूर्तता की सिद्धि होती है। तथा शंखादि की तीव्रमात्रा में वृद्धि पाये हुए शब्दो में मानवी केकान के पर्दे को तोड डालनेका
और मानवी को बहरा कर देने का सामर्थ्य है। अमूर्त आकाश में ऐसा कोई लक्षण देखने को नहि मिलता है। इसलिए शब्द आकाश का गुण नहीं है। उपरांत, जैसे पर्वत के साथ टकराके पत्थर वापस जाता है। वैसे शब्द दिवाल के साथ टकराके वापस फिरता है। इसलिए वह पत्थर की तरह मूर्त है। (इस बात की साक्षी अष्टसहस्री तथा प्रमेयकमलमार्तंडग्रंथ देता है । "कर्णशष्कुल्यां कटकटायमानस्य प्रायशः प्रतिघातहेतोर्भवताद्युपघातिनः शब्दस्य प्रसिद्धिः । अस्पर्शत्वकल्पना-मस्तंगमयति...।" ( अष्टसह० ) । द्रव्यं शब्दः स्पर्शाल्पत्वमहत्त्वपरिणाम संख्यासंयोगगुणाश्रयत्वात्, यद्यदेवविधं तत्तद्रव्यम् यथा बदरामलकबिल्वादि, तथा चायं शब्दः तस्माद् द्रव्यम् (प्रमेयक०)
तथा शब्द आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि द्वार का अनुसरण करता है। अर्थात् जहाँ रास्ता मिले उसमें से गुजर जाता है। जैसे कि सूर्य की धूप । (यही बात को न्यायकुमुदचंद्र ग्रंथ में बताई है.... "गुणवान् शब्दः स्पर्श-अल्पत्व-महत्त्व-परिमाण-संख्या-संयोगाश्रयत्वात्, यद् एवंविधं तद् गुणवत् यथा-बदर-आमलकादि तथा च शब्दः, तस्मात्तथा इति ।" न्यायकुमु०॥)
शब्द पौद्गलिक है, परन्तु आकाश का गुण नहीं है। ऐसा सिद्ध करने के लिए उपरोक्त अनुमान को पक्ष के रुप में स्वीकार करके नये पांच हेतु देते है - (१) शब्द आकाश का गुण नहीं है। क्योंकि उसमें संहरण (फैलाने) का सामर्थ्य है। जैसे कि, अगरुधूप।
(२) शब्द आकाश का गुण नहीं है। क्योंकि वायु से प्रेरणा पाता है। अर्थात् वायु द्वारा चाहे वहां फेंक सकते है। जैसे कि, तृण, पत्ते इत्यादि ।
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