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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
इसलिए आकाश में अवगाह मिलता है। उसमें प्रवेश करके पुद्गलादि आकाश में रहते है । इसलिए आकाश अवगाह्य = अवकाश देने योग्य है। इसलिए उसको "अवगाह" विवक्षित लक्षण किया है। जब कि, पुद्गलादि आकाश में रहनेवाले है। अर्थात् अवगाहक = अवकाश प्राप्त करनेवाले है। इसलिए वह गौण है। इसलिए अवगाह देने में आकाश ही असाधारण कारण के रुप में ग्रहण किया हुआ है । इसलिए पुद्गलादि को अवगाहरुप उपकार करनेवाला आकाश द्रव्य है ।
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इसलिए दूसरे द्रव्य में असंभवित ऐसे अपने उपकार से अतीन्द्रिय भी आकाशद्रव्य का अनुमान किया जाता है। जैसे कि, आत्मा या धर्मादि अतीन्द्रियपदार्थो की सिद्धि भी इस तरह से असाधारण धर्मो या कार्यो से की जाती है।
उपरांत पुरुष के हाथ के दण्ड के साथके संयोग से तथा भेरी इत्यादि के संयोग से उत्पन्न होने वाला शब्द में पुरुष का हाथ, दंड, भेरी इत्यादि बहोत कारण होने पर भी, जैसे शब्द का असाधारण कारण भेरी होने से भेरी का शब्द कहा जाता है । जैसे यव के अंकुरो में यव, पृथ्वी, पानी, पवन इत्यादि कारण होने पर अंकुरो का असाधारणकारण यव होने से यव के अंकुरा ऐसा व्यपदेश किया जाता है। इस तरह से अवगाह भी आकाश का असाधारणधर्म है ।
वैशेषिको ने शब्द को आकाश का गुण माना है और शब्दरुप लिंग से आकाश का अनुमान करते है। शब्द को गुण तथा आकाश को गुणी मानकर गुण से गुणी का अनुमान करते है
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परंतु वैशेषिको की यह बात युक्त नहीं है। क्योंकि पौगलिक शब्द में तो रुप, रस इत्यादि होते है, जब कि आकाश में वे गुण होते नहीं है, वह तो अमूर्त है । इसलिए दोनो में इतना विरोध हो तो उन दोनो के बीच गुण-गुणीभाव किस तरह से हो सकेगा ? शब्द मूर्त तथा पौगलिक है। वह प्रतिघात और अभिभव से सिद्ध है। (शब्द दिवाल से टकराता है, बीजली इत्यादि का तीव्रध्वनि कान का पर्दा फाड देता है। ढोल का तीव्र शब्द मंद शब्द को दबा देता है। यदि शब्द अमूर्त हो तो उसमें प्रतिघात- टकराना तथा अभिभव= मंद शब्दो का दब जाना इत्यादि नहीं हो सकता है ।)
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आकाश तथा धर्मादि अमूर्तद्रव्य प्रतिघात या अभिभव पाते नहीं है । इसलिए प्रतिघात और अभिभव से शब्द मूर्त तथा पौगलिक सिद्ध होता है ।
वर्तनादि लिंगो के द्वारा काल का अनुमान किया जाता है । प्रत्येक द्रव्य और पर्याय प्रतिक्षण जो अपनी एक समयवाली सत्ता का अनुभव करता है, वे सभी वस्तुओ की एक समयवाली सत्ता ही वर्तना कही जाती है । काल के बिना समस्तवस्तुओ में रही हुई एक समयवाली सत्ता का प्रतिसमय होता महसूस संगत नहीं होता है। इसलिए एक समयवाली पदार्थो की सत्तारुप वर्तना से पदार्थो के परिणमन में निमित्त होनेवाले काल का अनुमान किया जाता है ।
सूर्य की क्रिया को ही काल नहीं कह सकते है । क्योंकि जगत में कालद्रव्य के वाचक शब्द व्यवहार
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