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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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में देखी जाती है। परंतु बरसात का पानी खेती के आरंभ में प्रवर्तित नहीं हुए मनुष्यो को खेती के आरंभ में प्रवर्तित करता प्रतीत होता नहीं है। कहने का मतलब वह है कि बरसात किसानो के हाथ में हल पकडाता नहीं है। परंतु बरसात पडने से किसान स्वयं हल चलाने का कार्य करते है। उसमें निमित्त बरसात बनी है। __ अथवा वर्षाऋतु में नये बादलो के ध्वनि के श्रवण के निमित्त से गर्भ को धारण की हुई बगलीयां स्वयं ही प्रसव करती है। परंतु गर्भ को नहि धारण की हुई बगलीयों को वे नये बादलो की आवाजमात्र से एकाएक प्रसव होता नहीं है। अर्थात् बगलीयों के गर्भप्रसव में मेघ की आवाज निमित्त बनती है।
पापो से और संसार से स्वयं विरक्तपुरुष को पाप और संसार की असारता का प्रतिबोध कराके प्रतिबोध पापो का या संसार का त्याग करने में निमित्त बनता है। परंतु अविरक्त आत्मा को प्रतिबोध जबरदस्ती से संसार से विराम प्राप्त कराता नहीं है।
उपरांत गति में स्वयं परिणत द्रव्यो को गति में उपकारक के रुप में अवगाह लक्षणवाला आकाश द्रव्य संगत होता नहीं है। क्योंकि धर्मास्तिकाय का ही वह उपकार देखा गया है। उसी ही तरह से स्थिति में उपकारकद्रव्य अधर्मास्तिकाय ही है। अवकाश नहीं है।
तथा एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कोई असाधारण गुण मानना ही चाहिए। (तो ही उन दोनो में भिन्नता सिद्ध होगी।) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय आकाश से भिन्न द्रव्य है। उसका निश्चय युक्ति से या आगम से करना चाहिए । अर्थात् कोई भी स्वतंत्र द्रव्य का निश्चय आगम से या युक्ति से करना चाहिए। उन तीनों की स्वतंत्र द्रव्य के रुप में सिद्धि करती युक्तियां आगे दी जायेगी। आगम इस अनुसार से है - 'हे भगवान् ! द्रव्यो के कितने प्रकार कहे है ? हे गौतम ! द्रव्य छ: प्रकार के कहे है। (१)धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गलास्तिकाय, (५) जीवास्तिकाय, (६) काल ।' इस प्रकार आगम से छ: द्रव्य स्वतंत्र है, ऐसा सिद्ध होता है।
शंका : धर्मास्तिकायद्रव्य के निरपेक्ष रुप से ही पक्षी आकाश में उडता है। अग्नि उंचे जाता है। पवन तिच्छिदिशा में गति करता है। यह अनादिकाल से स्वभाव से ही होता दिखाई देता है और जो स्वभाव से कार्य होता है, उसमें कोई निमित्त बनता नहीं है। इसलिए धर्मास्तिकाय जैसे स्वतंत्रद्रव्य को मानने की आवश्यकता नहीं है।
समाधान : यह आपकी प्रतिज्ञामात्र ही है। परंतु वह प्रतिज्ञा अनवद्य (निर्दोष) हेतु - दृष्टांत के योग्य नहीं है। अर्थात् आपके विधान में = प्रतिज्ञा में हेतु और दृष्टांत निर्दोष नहीं है। क्योंकि धर्मास्तिकाय द्रव्य के उपकार से निरपेक्ष द्रव्यो की गति असिद्ध है। क्योंकि गति में परिणाम प्राप्त हुए सभी जीव और पुद्गलो को उपकार करनेवाले के रुप में अनेकांतवादियों ने धर्मास्तिकाय द्रव्य का स्वीकार किया है और स्थिति में परिणाम प्राप्त हुए जीव और पुद्गलो को उपकार करनेवाले के रुप में अधर्मास्तिकाय द्रव्य का स्वीकार किया है। उन दोनो के द्वारा गति या स्थिति करवाई नहीं जाती। मात्र वे दोनो सहकारमात्र से उपकारक बनते
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