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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
के अभाव में कार्य की उत्पत्ति मानोंगे तो व्यतिरेक व्यभिचार आके खडा रहेगा और अव्यवस्था खडी होगी। (कहने का मतलब यह है कि सामान्य मनुष्यो को कवलाहार करने में जो कारण या प्रयोजन होते है वे केवलज्ञानि को होते नहि है। इसलिए सामान्य मनुष्यो की तरह केवलज्ञानि को कवलाहार होता नहीं है।)
उपरोक्त अनुमान में "कारणाभाव" हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानि में आहार ग्रहण करने के कारणभूत वेदनादि छ: में से एक भी कारण विद्यमान नहीं है। वह इस तरह से - (१) केवलज्ञानि को क्षुधा की वेदना उत्पन्न नहीं होती है। क्योंकि केवलज्ञानि का क्षुधावेदनीय कर्म जले हुए रस्सी जैसा हो गया है और क्षुधा की वेदना होने पर भी उसको वेदना से उत्पन्न होनेवाली पीडा (यातना) अनंतवीर्य के कारण होती नहीं है। (२) भगवान तीन लोक से पूज्य होने से किसी की वैयावच्च (सेवा) करने जाना नहीं पड़ता। इसलिए आहार ग्रहण में कारणरुप वैयावच्च का संभव नहि है। (३) केवलज्ञानि को केवलज्ञानावरणीय का सर्वथा क्षय हुआ होने से सम्यक् रुप से देख सकते है। इसलिए इर्यासमिति के पालन के लिए भी आहारग्रहण की जरुरत नहीं है। (४) संयम के निर्वाह के लिए भी केवलज्ञानि को आहारग्रहण की जरुरत नहीं है। क्योंकि उनको यथाख्यातचारित्र प्राप्त हुआ होने से कृतकृत्य है। तथा अनतवीर्य होने से आहार ग्रहण का कोई कारण नहि है (५) जीवनवृत्ति के लिए (शरीर टिकाने के लिए) भी केवलज्ञानि को आहार करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानि का आयुष्य अनपवर्त्य (कम न हो वैसा) होता है तथा अनंतवीर्य होने से शरीरमें कमजोरी आने की संभावना नहीं है। इसलिए जीवनवृत्ति के प्रति आहारग्रहण अन्यथासिद्ध है। (६) केवलज्ञानि को धर्मचिंतन के लिए भी आहारग्रहण की जरुरत नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानि स्वयं कृतकृत्य है। धर्म का फल प्राप्त हो गया है । इसलिए धर्मचिंतन का अवसर चला गया है।
इसलिए इस अनुसार से कवलाहार बहुदोष से दुष्ट होने से केवलियों को कवलाहार होता नहीं है। ___ अत्रोच्यते-तत्र यत्तावदूचानं “तत्कारणाभावात्” इति साधनं तदसिद्धं, आहारकारणस्य वेदनीयस्य केवलिनि तथैव सद्भावात् । तथा च किमिति सा शारीरी स्थितिः प्राक्तनी न स्यात् । प्रयोगोऽत्र-स्यात्केवलिनो भुक्तिः समग्रसामग्रीकत्वात-62, पूर्वभुक्तिवत् । सामग्री चेयं पर्याप्तत्वं वेदनीयोदय आहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्वं चेति । सा च समग्रापि केवलिनि समस्ति । यदपि दग्धरज्जुस्थानिकत्वं वेदनीयस्योच्यते, तदप्यनागमिकमयुक्तियुक्तं च, आगमेऽत्यन्तसातोदयस्य केवलिनि प्रतिपादनात-63 । युक्तिरपि, यदि घातिकर्मक्षयाज्ज्ञानादयस्तस्य भवेयुः, वेदनीयोद्भवायाः क्षुधः किमायातं येनासौ न भवति । न तयोश्छायातपयोरिव सहानवस्थानलक्षणो भावाभावयोरिव परस्परपरिहारलक्षणो वा कश्चिद्विरोधोऽस्तिE-64, सातासातयोरन्तर्मुहूर्त-परिवर्तमानतया सातोदयवदसातोदयोऽप्यस्तीत्यनन्तवीर्यत्वे सत्यपि
(E-62-63-64) -- तु० पा० प्र० प० ।
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