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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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व्याख्या का भावानुवाद :
द्वयणुकादि स्कन्ध है। यावत् अनंत अणुवाले द्रव्य स्कन्ध कहे जाते है। वे स्कन्ध अवयवोवाले है। वह ज्यादातर देना, लेना इत्यादि व्यापार में समर्थ होते है। वे स्कन्ध परमाणु के संघात स्वरुप है।
ये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल, पुद्गलो और जीवो के साथ छः द्रव्य है। उसमें प्रथम चार एक द्रव्य है। जीव और पुद्गल अनेक द्रव्य है। अर्थात् प्रथम चार एक ही द्रव्य है। जब कि जीव और पुद्गल अनेक है। पुद्गल के सिवा पांच द्रव्य अमूर्त है। पुद्गल मूर्त ही है।
शंका : जीव द्रव्य अरुपि होने पर भी जीव का उपयोग स्वभाव होने के कारण उपयोगस्वभावत्वेन स्वसंवेदन से जीव संवेद्य है। इसलिए जीव का अस्तित्व श्रद्धापथ में आ सकता है, अर्थात् जीव अरुपि होने पर भी उसका ज्ञानदर्शन रुप उपयोग स्वभाव "मैं सुखी हूं", "मैं जानता हूं" इत्यादि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव में आता है। इसलिए उसकी सत्ता मानने में दिक्कत नहीं आती है। परंतु धर्मास्तिकायादि का कभी भी स्वसंवेदन होता नहीं है। क्योंकि वह अचेतन है तथा नित्य = हमेशा अरुपि होने के कारण दूसरा कोई भी उसको प्रत्यक्ष से जाना नहीं जा सकता। इसलिए किस तरह से वह धर्मास्तिकायादि की सत्ता श्रद्धापथ में आ सकेगी।
समाधान : "प्रत्यक्ष से जो पदार्थ उपलब्ध न होता हो, वह सर्वथा होता ही नहीं है । जैसे खरगौश का सिंग।" ऐसा एकांत से मानना नहीं चाहिए। क्योंकि लोक में दो प्रकार से (पदार्थो की) अनुपलब्धि होती है। (१) अविद्यमान - पदार्थ की अनुपलब्धि, जैसे कि, घोडे के मस्तक उपर सिंग। (२) विद्यमान पदार्थ की अनुपलब्धि ।
जो सत्स्वभाववाले पदार्थ की भी अनुपलब्धि हो, उसके यहां आठ प्रकार के विभाग होते है । (१) सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि अति दूर होने से है । (२) अतिसामीप्यात्सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि अति नजदीक होने से है। (३) इन्द्रियघातात्- सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि इन्द्रियो का घात हुआ होने से है। ( ४ ) मनसोऽनवस्थानात्- सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि (इन्द्रियो का व्यापार होने पर भी) मन दूसरी जगह पे होने से है । (५) सौम्यात्- सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि पदार्थ की सूक्ष्मता के कारण है । (६) आवरणात्-सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि पदार्थ के उपर आवरण होने से है । (७) अभिभवात्-सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि वह पदार्थ दूसरे पदार्थ से अभिभूत हुआ होने से है।(८) समानाभिहारात्- सत्स्वभाववाले पदार्थ की अनुपलब्धि समान पदार्थों में मिल जाने के कारण है।
उसमें (१) अतिदूर का व्यपदेश दूरदेशवर्ती पदार्थ में, अतीत - अनागतकालीन पदार्थ में और स्वभाव से अतीन्द्रिय पदार्थों में होता है। अर्थात् पदार्थ दूर देश में रहा हुआ हो, अतीतकाल या अनागतकाल संबंधी हो अथवा स्वभाव से अतीन्द्रिय हो, उसकी अनुपलब्धि होती है। अर्थात् देवदत्त की अनुपलब्धि देशविप्रकर्ष
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