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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
के कारण है। दूसरे गांव गया हुआ देवदत्त दिखाई देता नहीं है। इसलिए क्या वह नहीं है ? वह है ही । परंतु देशविप्रकर्ष के कारण उपलब्ध होता नहीं है। इस तरह से देशविप्रकर्ष के कारण समुद्र का दूसरा किनारा या मेरु, पर्वत इत्यादि विद्यमान होने पर भी उपलब्ध होते नहीं है ।
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इस अनुसार से कालविप्रकर्ष के कारण हो गये जिनेश्वर तथा अपने पूर्वज अथवा भविष्य में होनेवाले पद्मनाभ इत्यादि जिनेश्वर उपलब्ध होते नहीं है । क्योंकि अतीत काल में वे हुए थे और भविष्य में होनेवाले है । इसलिए कालविप्रकर्ष से विद्यमान होने पर भी वर्तमान में अनुपलब्ध है । उसी ही अनुसार से स्वभाव से आकाश, जीव, पिशाचादि उपलब्ध होते नहीं है । इसलिए वे नहीं है, ऐसा नहीं है ।
(२) पदार्थ अतिसमीप में हो, तो भी अनुपलब्ध होता है । जैसे आंख में लगा हुआ काजल उपलब्ध होता नहीं है। इसलिए क्या वह नहीं है ? काजल तो है ही । परंतु अति समीप होने के कारण अनुपलब्ध है ।
(३) इन्द्रियो का घात होने से पदार्थ उपलब्ध होता नहीं है । जैसे, अंध और बहेरे आदमी को रूपादि की उपलब्धि होती नहीं है। इसलिए क्या रुपादि नहीं है ? रुपादि तो है, परंतु इन्द्रियो का घात हुआ होने से उपलब्ध होते नहीं है ।
तथा
तथा मनोऽनवस्थानात् यथा अनवस्थितचेता न पश्यति । उक्तंच - " इषुकारनरः कश्चिद्राजानं संपरिच्छदम् । न जानाति पुरो यान्तं यथा ध्यानं समाचरेत् | 19 ||” तत्किं राजा न गतः ? स गत एव, पुनरनवस्थितचेतस्कत्वान्न दृष्टवान् । नष्टचेतसां वा सतोऽपि भावस्यानुपलब्धिः ४ । सौक्ष्म्यात् यथा जालकान्तरगतधूमोष्मनीहारादीनां त्रसरेणवो नोपलभ्यन्ते, परमाणुद्व्यणुकादयो वा सूक्ष्मनिगोदादयो नोपलभ्यन्ते, तत्किं न सन्ति ? सन्त्येव ते, पुनः सौक्ष्म्यान्नोपलब्धिः ५ । तथावरणात् कुड्यादिव्यवधानाज्ज्ञानाद्यावरणाद्वानुपलब्धिः तत्र व्यवधानात् यथा कुड्यान्तरे व्यवस्थितं वस्तु नोपलभ्यन्ते तत्किं नास्ति ? किं तु तदस्त्येव, पुनर्व्यवधानान्नोपलब्धिः एवं स्वकर्णकन्धरामस्तकपृष्ठानि नोपलभ्यन्ते, चन्द्रमण्डलस्य च सन्नपि परभागो न दृश्यते, अर्वाग्भागेन व्यवहितत्वात् । ज्ञानाद्यावरणाच्चानुपलब्धिः यथा मतिमान्द्यात्सतामपि शास्त्रसौक्ष्म्यार्थविशेषाणामनुपलब्धिः, सतोऽपि वा जलधिजलपलप्रमाणस्यानुपलब्धिः, विस्मृतेर्वा पूर्वोपलब्धस्य वस्तुनोऽनुपलब्धिः, मोहात् सतामपि तत्वानां जीवादीनामनुपलब्धिरित्यादि ६ 1 तथाभिभवात्, सूर्यादितेजसाभिभूतानि ग्रहनक्षत्राणि नोपलभ्यन्ते, तत्कथं तेषामभावः ? किं तु तानि सन्त्येव, पुनरभिभवान्न दृश्यन्ते । एवमन्धकारेऽपि घटादयो नोपलभ्यन्ते ७ । समानाभिहाराच्च यथा मुष्टराशौ मुष्टमुष्टिः तिलराशौ तिलमुष्टिर्वा क्षिप्ता सती सूपलक्षितापि नोपलभ्यते, जले क्षिप्तानि लवणादीनि वा
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