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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
(७) अभिभव होने से पदार्थो की उपलब्धि होती नहीं है। जैसे सूर्यादि के तेज से अभिभूत हुए ग्रह-नक्षत्र उपलब्ध होते नहीं है। इसलिए क्या उनका अभाव है? अभाव नहीं है। वे ग्रह-नक्षत्र आदि है ही। परंतु सर्यादि का अभिभव हआ होने से दिखते नहीं है। इस अनसार अंधकार में भी घटादि पदार्थ उपलब्ध होते नहीं है।
(८) समानपदार्थों में मिल जाने से भी पदार्थ की उपलब्धि होती नहीं है। जैसे मूंग के ढेर में मूंग की मुट्ठी तथा तिलके ढेर में तिलकी मुट्ठी डालने पर भी उसमें मिल जाने के कारण अच्छी तरह से उपलक्षित होने पर भी तादृश मुट्ठी भर मूंग या तिल उपलब्ध होते नहीं है। अथवा पानी में डाला हुआ नमक इत्यादि उपलब्ध होते नहीं है। इसलिए क्या उनका अभाव है ? नहीं, अभाव नहीं है। वे विद्यमान ही है। परन्तु समान के साथ मिल जाने के कारण उपलब्ध होते नहीं है।
सांख्यसप्तति में भी कहा है कि.. अति दूर होने से, अति समीप होने से, इन्द्रिय का घात हुआ होने से, मन का अन्यत्र अवस्थान होने से, सूक्ष्म होने से, बीच में व्यवधान होने से, दूसरे द्वारा अभिभव हुआ होने से तथा समानद्रव्यो में मिल जाने के कारण पदार्थो की उपलब्धि होती नहीं है। ॥१॥" इस अनुसार से आठ प्रकार से विद्यमान स्वभाववाले पदार्थ भी जिस अनुसार से उपलब्ध होते नहीं है, वह हमने उपर देखा। वैसे धर्मास्तिकायादि भी विद्यमान होने पर भी स्वभावविप्रकर्ष से अर्थात् स्वभाव से अतीन्द्रिय होने से उपलब्ध होते नहीं है। ऐसा मानना चाहिए।
आह परः येऽत्र देशान्तरगतदेवदत्तादयो दर्शिताः, तेऽत्रास्माकमप्रत्यक्षा अपि देशान्तरगतलोकानां केषांचित्प्रत्यक्षा एव सन्ति, तेन तेषां सत्त्वं प्रतीयते, धर्मास्तिकायादयस्तु कैश्चिदपि कदापि नोपलभ्यन्ते तत्कथं तेषां सत्ता निश्चीयत इति ? अत्रोच्यते, यथा देवदत्तादयः केषांचित्प्रत्यक्षत्वात्सन्तो निश्चीयन्ते, तथा धर्मास्तिकायादयोऽपि केवलिनां प्रत्यक्षत्वात्किं न सन्तः प्रतीयन्ताम् ? यथा वा परमाणवो नित्यमप्रत्यक्षा अपि स्वकार्यानुमेयाः स्युः, तथा धर्मास्तिकायादयोऽपि किं न स्वकार्यानुमेया भवेयुः ?। धर्मास्तिकायादीनां कार्याणि चामूनि । तत्र धर्मो गत्युपग्रहकार्यानुमेयः, अधर्मः स्थित्युपग्रहकार्यानुमेयः, अवगाहोपकारानुमेयमाकाशं, वर्तनाद्युपकारानुमेयः कालः, प्रत्यक्षानुमानावसेयाश्च पुद्गलाः । नन्वाकाशादयः स्वकार्यानुमेया भवन्तु, धर्माधर्मों तु कथम् ? अत्रोच्यते युक्तिः, धर्माधर्मो हि स्वत एव गतिस्थितिपरिणतानां द्रव्याणामुपगृह्णीतोऽपेक्षाकारणतया आकाशकालादिवत्, न पुनर्निर्वर्तककारणतया, निर्वर्तकं हि कारणं तदेव जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यं वा गतिस्थितिक्रियाविशिष्टं, धर्माधर्मों पुनर्गतिस्थितिक्रियाविशिष्टानां द्रव्याणामुपकारकावेव न पुनर्बलाद्गतिस्थितिनिर्वर्तकौ । यथा १. 'नृन्' मनुष्यान्. अ. “छविहे दव्वे पण्णत्ते, तं जहा-धमत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धसमये अ, सेतं दव्वणामे ।"
- अनुयोग० द्रव्यगुण० सू० १२४ ।
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