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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
अपना मूल स्वभाव छोडे बिना मूल स्वभाव में ही एक अवस्था को छोडकर दूसरी अवस्था में जाना उसे परिणाम कहा जाता है । अर्थात् एक पर्याय में से दूसरे पर्याय में जाना उसे परिणाम कहा जाता है। जैसे कि, वृक्ष के अंकुर, मूलादि अवस्थायें वह परिणाम है। अर्थात् भूतकाल में अंकुर था, उसमें से वर्तमान में स्कन्धवाला हुआ और भविष्य में पुष्पवाला होगा। इस तरह से अवस्थान्तर की अंदर परिणमन होना उसे परिणाम कहा जाता है। उसी ही तरह से पुरुषद्रव्य की बाल, कुमार, जवानी इत्यादि अवस्थायें परिणाम है । परिणाम दो प्रकार का है । (१) अमूर्त धर्मादि द्रव्यो में अनादिपरिणाम है । (२) मूर्ति ऐसे अभ्र (बादल), इन्द्रधनुष्य इत्यादि में तथा स्तंभ, घट, कमल इत्यादि में सादि परिणाम है । जिन द्रव्यो के परिणमन का प्रारंभ न हो वह अनादिपरिणाम और जिन द्रव्यों के परिणमन का प्रारंभ हुआ हो वह सादिपरिणाम |
एकजातीय वनस्पतियों में ऋतुभेद से तथा समय के भेद से एक ही काल में विचित्र परिणाम होता है । पुरुष के प्रयोग से या स्वाभाविक रुप से उत्पन्न हुए जीवो के परिणमन के लिए होनेवाली व्यापारक्रिया में काल सहायक होता है । अर्थात् जीवो का अवस्थान्तर में परिणमन प्रयोग से या स्वाभाविक रुप से होता है। उस परिणमन के लिए होनेवाली व्यापारक्रिया में काल सहायक बनता है । घट का नाश हुआ, सूर्य को मैं देखता हूं, बरसात होगी । इत्यादि अतीतादि व्यपदेश अर्थात् परस्परअसंकीर्ण ऐसे अतीतादि कालसंबंधी व्यवहारो का जिसकी अपेक्षा से व्यपदेश किया जाता है। "वह काल है।" "यह पर है।" "यह अपर है।" इत्यादि ज्ञान तथा व्यवहार भी कालनिमित्तक ही है । अर्थात् काल निमित्त से होता है ।
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इसलिए इस अनुसार से वर्तनाआदि लिंगो से अनुमेय कालद्रव्य मनुष्यलोक में ही है। मनुष्यलोक से बाहर कालद्रव्य नहीं है। मनुष्यलोक के बाहर रहे हुए पदार्थ स्वयं ही उत्पन्न होते है, स्वयं नाश होते है और स्वयं स्थिर रहते है। अर्थात् मनुष्यलोक से बाहर पदार्थो का अस्तित्व स्वतः ही होता है । कालकी सहायता से नहि है ।
तथा वहाँ के जीवो के श्वासोश्वास, आँखो का पलकना, आँखो का खुलना इत्यादि व्यापार काल की अपेक्षा होता नहीं है । क्योंकि सजातीय पदार्थो का उक्त व्यापार एकसाथ नहीं होता । सजातीय पदार्थो का एकसाथ होनेवाला व्यापार काल की अपेक्षा रखता है । विजातीय पदार्थो का नहीं । वहाँ के प्राणीयों का श्वासोश्वासा-दिव्यापार न तो एक काल में उत्पन्न होता है, या न तो नाश होता है, कि जिससे उसको काल की अपेक्षा हो !
मनुष्यलोक की बाहर परत्व - अपरत्व का व्यवहार भी चिरकालीनस्थिति और अचिरकालीनस्थिति की अपेक्षा से होता है और वह स्थिति अस्तित्व की अपेक्षा रखती है और अस्तित्व स्वत: ही है ।
वैसे ही जो आचार्य काल को स्वतंत्रद्रव्य मानते नहीं है, उनके मत में सभी द्रव्यो के वर्तनादि पर्यायरुप ही काल है। परन्तु उनको होने में काल नाम के द्रव्य की कोई अपेक्षा नहीं है । अर्थात् काल अपेक्षाकारण बनता नहीं है।
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