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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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पानी रहने की जगह देता है, वैसे रहने की इच्छावाले पुद्गलादि को रहने की जगह आकाश देता है।
शंका : आपने कहा कि अवकाश देने में उपकारक आकाश है, तो अलोक में आकाश किसीको रहने की जगह देता नहीं है। तो आकाश किस तरह से अवकाश देने में उपकारक कहा जाता है ?
समाधान : आकाश अलोक में व्याप्त होने से अवकाश देने में प्रवृत्त ही है, परंतु गति--स्थिति में कारणभूत धर्मास्तिकाय - अधर्मास्तिकाय अलोक में न होने से अलोक में कोई पुद्गलादि द्रव्य ही नहीं है। इसलिए जीव-पुद्गलादि के अभाव में आकाश का अवगाहन गुण विद्यमान होने पर भी उसका कार्य प्रकट रुप से दिखाई देता नहीं है। परंतु उसके गुण का परिणमन तो है ही। (पहले भी कहा था कि रहने की इच्छावाले द्रव्यो को रखने का काम आकाश करता है। जबरदस्ती से रखने का काम करता नहीं है। अलोक में रहने की इच्छावाले द्रव्यो का ही अभाव होने से उसको रखने की क्रिया आकाश में दिखती नहीं है।)
काल ढाई द्वीप में रहता है। वह काल परमसूक्ष्म, निर्विभाग, एकसमयरुप है । वह काल अस्तिकाय कहा जाता नहीं है। क्योंकि एक समय रुपकाल प्रदेशरहित है और कहा भी है कि.... "मनुष्यलोकव्यापी काल एक समयरुप है और एक होने से “काय" रूप नहीं है। समुदाय को "काय" कहा जाता है। ॥१॥" (जैनदर्शनानुसार "ढाई द्दीप" एक चोक्कस क्षेत्रे है। चौदराजलोक प्रमाण क्षेत्र का एक चोक्कस विभाग ही ढाई द्दीप कहा जाता है। क्षेत्र संबंधी विशेष वर्णन जैनदर्शन के बृहद्संग्रहणी इत्यादि ग्रंथ में मिलता है।)
सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्रादि के उदय-अस्त इत्यादि क्रिया से परिज्ञान होता है वह काल एकमत से द्रव्य कहा जाता है और वह एक समयरुप काल, द्रव्य और पर्याय उभयस्वरुप है। यद्यपि काल में प्रतिक्षण परिणमन होता होने से उत्पाद और व्यय होता रहता है। फिर भी द्रव्यास्तिकनय से (द्रव्यदृष्टिसे) वह अपना स्वरुप बदलता नहीं है, अर्थात् कभी भी कालान्तरभूत या अकालरुप बनता नहीं है। इस कालक्रम से या अक्रम से (एकसाथ) होनेवाले अनंत पर्यायो में अपनी सत्ता रखता है। इस तरह से द्रव्यरुप से समस्तपर्यायो के प्रवाह में अपनी सत्ता व्याप्त होने के कारण नित्य कहा जाता है। अनागत, अतीत या वर्तमान किसी भी अवस्था में भी अपना अस्तित्व रखता है। अर्थात "काल-काल" ऐसा साधारणव्यवहार प्राप्त करता है। जैसे परमाणु अनेक रुपो में परिवर्तित होनेरुप अनेकविध पर्यायो से अनित्य है फिर भी द्रव्यत्वेन हमेशा सत् है। कभी भी असत् होता नहीं है। इसलिए नित्य है। उस अनुसार से समयरुप काल अनेकरुपो में परिवर्तित होने के कारण पर्यायो से अनित्य होने पर भी हमेशा सत् रहता है और कभी भी असत् होता न होने से नित्य है।
यह काल निवर्तककारण या परिणामिकारण नहीं है। परंतु स्वयं उत्पन्न के प्रति भाव होनेवाले “यहकाल में ही हो, अन्य काल में नहीं है।" इस तरह से अपेक्षाकारण बनता है। अर्थात् अपने आप परिणमन पाते पदार्थो के परिणमन में "यह परिणमन इस काल में होना चाहिए। दूसरे काल में नहि है।" ऐसे स्वरुप से काल अपेक्षाकारण बनता है।
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