________________
१०८/७३१
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
निर्विभाग एकः समयः । स चास्तिकायो न भण्यते, एकसमयरूपस्य तस्य निःप्रदेशत्वात् । आह च-“तस्मान्मानुषलोकव्यापी कालोऽस्ति समय एक इह । एकत्वाञ्च स कायो न भवति कायो हि समुदायःA ।।१।।" स च सूर्यादिग्रहनक्षत्रोदयास्तादि-क्रियाभिव्यङ्गय एकीयमतेन द्रव्यमभिधीयते । । स चैकसमयो द्रव्यपर्यायोभयात्मैव, द्रव्यार्थरूपेण प्रतिपर्यायमुत्पादव्ययधर्मापि स्वरूपानन्यभूतक्रमाक्रमभाव्यनाद्यपर्यवसानानन्तसंख्यपरिमाणः, अत एव च स स्वपर्यायप्रवाहव्यापी द्रव्यात्मना नित्योऽभिधीयते । अतीतानागतवर्तमानावस्थास्वपि काल: काल इत्यविशेषश्रुतेः । यथा ह्येकः परमाणुः पर्यायैरनित्योऽपि द्रव्यत्वेन सदा सन्नेव न कदाचिदसत्त्वं भजते, तथैकः समयोऽपीति । अयं च कालो न निर्वर्तककारणं नापि परिणामिकारणं, किंतु स्वयं संभवतां भावानामस्मिन् काले भवितव्यं नान्यदेत्यपेक्षाकारणम् । व्याख्या का भावानुवाद :
धर्मद्रव्य की तरह अधर्मद्रव्य भी लोकव्यापी, अमूर्त, अवस्थित आदि विशेषणोवाला है। परंतु अधर्मद्रव्य स्थिति (खडे रहने) में परिणत हुए जीव तथा पुद्गल की स्थिति के विषय में अपेक्षाकारण है। अर्थात् जीवादि की स्थितिरुप क्रिया में अपेक्षाकारण अधर्मद्रव्य है। इतनी धर्मद्रव्य से उसमें विशेषता है।
इस अनुसार से आकाश भी लोकालोकव्याप्त, अनंतप्रदेशवाला, नित्य, अवस्थित, अरुपी, अस्तिकाय, द्रव्य और जीवादि को अवगाहना देने में उपकारक है। धर्म-अधर्म द्रव्य से आकाश में यह विशेषता है कि वह लोकालोकव्यापी है। ___ कुछ आचार्य काल को स्वतंत्रद्रव्य मानते नहीं है। परंतु धर्मास्तिकाय इत्यादि के पर्याय स्वरुप ही मानते है। उन आचार्यो के मतानुसार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, और जीव नाम के पांच अस्तिकाय स्वरुप लोक है । अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलस्तिकाय, जीवास्तिकाय रुप पांच द्रव्योवाला लोक है। जो आचार्य काल को (स्वतंत्र) द्रव्य के रुप में मानते है। उनके मतानुसार षड्द्रव्यात्मक लोक है। क्योंकि उस लोक में धर्मादि पांच और कालद्रव्य विद्यमान है। ___ आकाशद्रव्य एक ही है जिसमें वह अलोक कहा जाता है। अर्थात् छ: द्रव्यो में से केवल एक आकाश जहां है वह अलोक कहा जाता है। ___ आकाशद्रव्य लोकालोक में व्याप्त है तथा अवकाश देने में उपकारक है। अर्थात् स्वतः ही रहनेवाले द्रव्यो को आकाश रहने की जगह देता है। परंतु रहना न चाहनेवाले पुद्गल आदि को जबरदस्ती रहने की जगह देता नहीं है। इसलिए आकाश पुद्गलादि द्रव्यो का अपेक्षाकारण है। जैसे रहने की इच्छावाले मकरादि को A उद्धृतेयं त० भा० टी० ५/२२ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org