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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
घटरूप कार्य का कर्ता कुम्भकार (कुम्हार)
इसलिए कहा है कि... " निर्वर्तक, निमित्त और परिणामि ऐसे तीन प्रकार के कारण है । घट का कर्ता कुम्भकार निर्वर्तककारण है । धारण करनेवाले चक्रादि निमित्तकारण है तथा मिट्टी उपादान - परिणामिकारण है ।"
निमित्तकारण दो प्रकार का है । (१) निमित्तकारण, (२) अपेक्षाकारण ।
जो निमित्तकारणो में स्वाभाविक तथा कर्ता के प्रयोग द्वारा क्रिया होती है, उन दोनो प्रकार की क्रियावाले दंडादि कारण (शुद्ध) निमित्तकारण कहा जाता है ।
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जो कारणो में मात्र स्वाभाविक क्रिया (परिणमन) होती है वह निमित्तकारण होने पर भी अपेक्षाकारण ही कहा जाता है । धर्मास्तिकायादि द्रव्यो में स्वाभाविक परिणमनस्वरुप क्रिया होती है। इसलिए वे निमित्तकारण होने पर भी विशेष कारणता को बताने के लिए अपेक्षाकारण कहा जाता है । अर्थात् अपेक्षाकारण निमित्तकारण ही है। परंतु उसमें मात्र स्वाभाविक परिणमनस्वरुप विशेषता होने के कारण उसे अपेक्षाकारण कहा जाता है 1
धर्मद्रव्य में होनेवाली स्वाभाविक परिणमन रुप क्रिया की अपेक्षा करते जीवादि द्रव्यो की अपनी गति आदि क्रियापरिणति पुष्ट होती है। इसलिए जीवादिद्रव्यो की गतिरुप क्रिया में अपेक्षित बनता धर्मास्तिकाय द्रव्य अपेक्षाकारण कहा जाता है ।
मन्तव्यः,
एवमधर्मोऽपि लोकव्यापितादिसकलविशेषणविशिष्टो धर्मवन्निर्विशेषं स्थित्युपग्रहकारी स्वत एव स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थितिविषयेऽपेक्षाकारणं वक्तव्यः २ 1 एवमाकाश लोकालोकव्यापकमनन्तप्रदेशं नित्यमवस्थितमरूपिद्रव्यमस्तिकायोऽवगाहोपकारकं च वक्तव्यं, नवरं लोकालोकव्यापकमिति । ये केचनाचार्याः कालो द्रव्यं नाभ्युपयन्ति किंतु धर्मादिद्रव्याणां पर्यायमेव, तन्मते धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवाख्यपञ्चास्तिकायात्मको लोकः । ये तु कालो द्रव्यमिच्छन्ति, तन्मते षड्द्रव्यात्मको लोकः, पञ्चानां धर्मादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य च तत्र सद्भावात् । आकाशद्रव्यमेकमेवास्ति यत्र सोऽलोकः लोकालोकयोर्व्यापकमवगाहोपकारकमिति स्वत एवावगाहमानानां द्रव्याणामवगाहदायि भवति न पुनरनवगाहमानं पुद्गलादि बलादवगाहयति । अतो निमित्तकारणमाकाशमम्बुवन्मकरादीनामिति । अलोकाकाशं कथमवगाहोपकारकं, अनवगाह्यत्वादिति चेत् ? उच्यते । तद्धि व्याप्रियेतैवावकाशदानेन यदि गतिस्थितिहेतू धर्माधर्मास्तिकायौ तत्र स्यातां न च तौ तत्र स्तः, तदभावाच्च विद्यमानोऽप्यवगाहनगुणो नाभिव्यज्यते किला लोकाकाशस्येति कालोऽर्धतृतीयद्वीपान्तर्वर्ती परमसूक्ष्मो
।।३।।
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नवरं
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