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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
अर्थात् कोई भी वस्तु का निषेध किया जाये तो सर्वथा सर्वत्र नहीं किया जाता । परंतु वह पदार्थ अन्यत्र विद्यमान होने पर भी विवक्षितस्थान में "संयोग से नहीं है।" ऐसा ही निषेध किया जाता है। परंतु सर्वथा उसका अभाव प्रतिपादित नहीं किया जाता है
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जैसे “नास्ति गृहे देवदत्तः " इस प्रयोग में देवदत्तादि विद्यमान होने पर भी मात्र गृह में उसके संयोगमात्र का निषेध किया जाता है । परंतु देवदत्तादि का सर्वथा निषेध नहीं किया जाता। (अर्थात् अभी देवदत्तादि का गृह में संयोग नहीं है। इसलिए अन्यत्र भी निषेध नहीं होता । अन्यत्र बगीचे आदि में तो वह होता ही है। यहां देवदत्तादि और गृह विद्यमान है, परंतु दोनो का संयोग नहीं है, इसलिए निषेध किया जाता है। परंतु सर्वथा निषेध नहीं किया जाता है ।)
उसी तरह से “खरविषाण नहीं है" इस प्रयोग में गधा और विषाण विद्यमान होने पर भी उन दोनो के बीच समवायमात्र का निषेध किया जाता है। अर्थात् गधे में सिंग के समवाय विशिष्ट संबंध का निषेध किया जाता है। (यहां गधे या सिंग का स्वतंत्रनिषेध नहीं है। क्योंकि वे अन्यत्र विद्यमान ही है। परंतु उन दोनो के बीच का विशिष्ट समवायसंबंध का निषेध किया जाता है ।)
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'अन्य चन्द्र नहीं है।” इस प्रयोग में विद्यमान चन्द्र से अन्य (दूसरे) चन्द्र का निषेध किया गया है। अर्थात् इस चन्द्रमा की तरह दूसरा चन्द्रमा नहीं है । (चन्द्र तो ऐसे अनेक नहीं है, एक ही है ।) ऐसा चन्द्रसामान्य का निषेध किया गया है। परंतु सर्वथा चन्द्र के अभाव का प्रतिपादन नहीं किया गया ।
"मोती घट के प्रमाण के नहीं है ।" इस प्रयोग में मोती घट की तरह ज्यादा प्रमाणवाले नहीं है। ऐसा मात्र घटप्रमाणतारुप विशेष मोतीयों का निषेध किया गया है । परंतु मोतीमात्र का निषेध नहीं किया गया है।
इस अनुसार से " आत्मा नहीं है" इस प्रयोग में विद्यमान आत्मा का जो कोई विवक्षितस्थान में किसीके साथ के संयोगमात्र का ही आपके द्वारा निषेध करना चाहिए (सर्वथा नहि) । अर्थात् "इस शरीर में आत्मा नहीं है ।" इस प्रयोग में इस विवक्षितशरीर में ही आत्मा के संयोग का निषेध किया गया है, परंतु आत्मा का सर्वथा अन्यत्र दूसरे शरीरो में निषेध नहीं किया गया है ।
अत्राहकश्चित्-ननु यदि यन्निषिध्यते तदस्ति, तर्हि मम त्रिलोकेश्वरताप्यस्तु युष्मदादिभिर्निषिध्यमानत्वात् । तथा चतुर्णां संयोगादिप्रतिषेधानां पञ्चमोऽपि प्रतिषेधप्रकारोऽस्ति, त्वयैव निषिध्यमानत्वात्, तदयुक्तम् । त्रिलोकेश्वरताविशेषमात्रं भवतो निषिध्यते यथा घटप्रमाणत्वं मुक्तानां न तु सर्वथेश्वरता, स्वशिष्यादीश्वरतायास्तवापि विद्यमानत्वात् । तथा प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमविद्यमानमेव निवार्यते न तु सर्वथा प्रतिषेधस्याभावचतुःसंख्याविशिष्टस्य सद्भावात् । ननु सर्वमप्यसंबद्धमिदम् I तथाहि मत्त्रिलोकेश्वरत्वं तावदसदेव निषिध्यते, प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमप्यविद्य
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