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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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होने पर भी इन्द्रियो के द्वारा ग्रहण किये हुए अर्थ का स्मरण होता है।"
प्रयोग : जो जिसका उपरम होने पर भी उससे उपलब्ध अर्थो का स्मरण करनेवाला होता है, वह उससे अतिरिक्त होता है। जैसे कि, खिडकी बंध होने पर भी गवाक्ष (खिडकी) द्वारा देखे हुए पदार्थो का स्मरण करनेवाला देवदत्त गवाक्ष खिडकी से अतिरिक्त है। (कहने का मतलब यह है कि, जैसे जो वस्तु द्वारा पदार्थो का ज्ञान हुआ, उस वस्तु का नाश होने पर अथवा उसका व्यापार बंध होने पर भी ज्ञाता को पहले देखे हुए पदार्थो का स्मरण होता है। इसलिए स्मरण करनेवाला ज्ञाता, वह ज्ञान करने में निमित्त बनी हुई वस्तु से अतिरिक्त है। वैसे इन्द्रियो के द्वारा आत्मा ने पदार्थ का ज्ञान किया और इन्द्रिय के व्यापार के अभाव में भी आत्मा को ज्ञात पदार्थो का स्मरण होता है। इसलिए उस पदार्थो को ज्ञान करने में निमित्त बनी हुई इन्द्रियो से आत्मा अतिरिक्त है, ऐसा सिद्ध होता है।)
उपरांत इन्द्रियो के अर्थो का जिसने ग्रहण किये है, वैसा व्यक्ति कालांतर से अंध या बधिर हो जाने पर भी पहले ग्रहण किये हुए अर्थो का स्मरण करता है। इसलिए वह व्यक्ति इन्द्रियो से अर्थान्तर (दूसरा स्वतंत्र पदार्थ) है, ऐसा सिद्ध होता है। अर्थात् अंधत्व-बधिरत्व अवस्था में भी आत्मा पूर्वगृहीत इन्द्रियों के अर्थो का स्मरण करता है। इसलिए आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है।
अथवा इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा है। क्योंकि इन्द्रियों का (पदार्थो में) व्यापार होने पर भी कभी अनुपयुक्त अवस्था में वस्तु की (पदार्थ की) उपलब्धि होती नहीं है।
अनुमान प्रयोग : "इन्द्रियो से अतिरिक्त आत्मा है । क्योंकि इन्द्रियो के व्यापार में भी पदार्थ की उपलब्धि होती नहीं है।" यहा जो जिसका व्यापार होने पर भी जिनके द्वारा उपलब्ध पदार्थो का ज्ञान करता नहीं है। वह उनसे भिन्न देखा गया है। (अर्थात् जो व्यक्ति का इन्द्रियो के विषयो में व्यापार होने पर भी इन्द्रियो के विषयों का ज्ञान करता नहीं है, वह व्यक्ति (आत्मा) इन्द्रियो से भिन्न है। कहने का मतलब यह है कि, इन्द्रियां है, इन्द्रियो का विषयो में व्यापार है, फिर भी विषयो का ज्ञान होता नहीं है। इसलिए सिद्ध होता है कि विषयो का ज्ञान करनेवाला कोई भिन्न तत्त्व होना चाहिए और वही आत्मा है। इसलिए ही) खिडकी खुली है बाहर पे पदार्थ भी है, फिर भी अन्य जगह पे जिनका मन है वह देवदत्त पदार्थो को देख नहीं सकता है। इसलिए पदार्थो को नहि देखता देवदत्त भिन्न है। उसी ही तरह से इन्द्रियां विषयो में प्रवृत्त होने पर भी विषयो का ज्ञान होता नहीं है। इसलिए उस पदार्थो का ज्ञाता इन्द्रिय से भिन्न दूसरा कोई होना चाहिए, कि जिसका उपयोग न होने के कारण पदार्थो का ज्ञान होता नहीं है और उस इन्द्रियों से भिन्न ज्ञाता है, वही आत्मा है।
अथवा "सभी इन्द्रियो से भिन्न आत्मा है। क्योंकि अन्य इन्द्रिय से पदार्थ को जानकर उससे अन्य इन्द्रियों को विकार होता है।"
यहाँ जो अन्य खिडकी से पदार्थ को जानकर (उससे) अन्य खिडकी से विकार प्रदर्शन करे वह खिडकीयों से भिन्न देखा गया है। जैसे महल की पूर्व दिशा की खिडकी द्वारा सुन्दर स्त्री को देखकर अपर
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