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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
आत्मा कर्ता है, क्योंकि स्वकर्म के फल को भुगतनेवाला है । जो स्वकर्म के फल का भोक्ता होता है। वह उस कर्म का कर्ता भी होता ही है । जैसे किसान खेती को काट के धान्यरुपी फल का भोक्ता है, तो वह किसान खेती का (कृषि का) कर्ता भी है ही । उसी तरह आत्मा भी कर्म के शुभाशुभ फल का भोक्ता है, तो वह आत्मा कर्म का कर्ता भी है ही ।
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तथा सांख्यो के द्वारा परिकल्पित पुरुष जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। क्योंकि वह कोई कार्य ही करता नहीं है। आकाशपुष्प कोई कार्य करता नहीं है, तो जैसे उसका अस्तित्व ही जगत में नहीं है, वैसे सांख्यो के द्वारा परिकल्पित पुरुष कार्य करता न होने से वास्तव में वह विद्यमान ही नहीं है । अर्थात् सांख्यो के द्वारा माना गया पुरुष वस्तुसत् नहीं है । क्योंकि वह कोई कार्य करता नहीं है । जैसे कि, आकाशकुसुम ।
उपरांत हे सांख्यो ! आपका आत्मा (पुरुष) आपने भोक्ता के रुप में अंगीकार (स्वीकार) किया है, तो वह आत्मा भोग क्रिया करता है या नहि ? वह बतायें। यदि भोगक्रिया करता है, तो दूसरी क्रियाएं करने में क्या अपराध है ? और यदि भोगक्रिया करता नहीं है, तो वह भोक्ता किस तरह से कहा जा सकता है ? यह सब आपको सोचना चाहिए। कर्ता बने बिना आत्मा भोक्ता बन सकता ही नहीं है। अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "संसारी आत्मा भोक्ता नहीं है । क्योंकि कोई क्रिया करता नहीं है । जैसे मुक्तात्मा ।"
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तथा यदि आत्मा को कर्ता तथा भोक्ता के रुप में स्वीकार किया न जाये तो " कृतनाश" और “अकृताभ्यागम” इत्यादि दोष आ जायेंगे। करनेवाला दूसरा कोई हो और भुगतनेवाला दूसरा कोई हो तो “कृतनाश” और “अकृताभ्यागम" ये दो दोष आते है । आपके मतानुसार प्रकृति ने कर्म (क्रिया) की और पुरुष को फल मिला अर्थात् प्रकृति कर्ता है और पुरुष भोक्ता है । यह बात संगत होती नहीं है। क्योंकि उसमें “कृतनाश" और " अकृताभ्यागम" दो दोष आते है - "प्रकृति से किये गये कर्म के फल का संबंध प्रकृति को नहीं होता अर्थात् प्रकृतिने क्रिया की परंतु उस क्रिया का फल प्रकृति को नहि मीला अर्थात् प्रकृति ने किया हुआ निरर्थक ( नाश) हुआ । इसलिए " कृतनाश" दोष स्पष्ट रुप से आता है ।" तथा " आत्मा ने जो क्रिया की नहीं है उस क्रिया के फल का संबंध आत्मा के साथ होता है । अर्थात् आत्मा को नहि किये हुए का अभ्यागम होता है। इसलिए "अकृताभ्यागम" दोष स्पष्ट रुप से आता है।" इस प्रकार प्रकृति को कर्ता और आत्मा को भोक्ता मानने से दो दोष आते होने से यह दोष न आये इसलिए आत्मा को कर्ता के रुप में स्वीकार करना ही चाहिए । तथा जडस्वरूपत्वमप्यात्मनो न घटते, तद्बाधकानुमानसद्भावात् । तथाहि - अनुपयोगआत्मा नार्थपरिच्छेदकर्त्ता, अचेतनत्वात्, गगनवत् 1 अथ चेतनासमवायात्परिच्छिनत्तीति चेत् ? तर्हि यथात्मनश्चेतनासमवायाज्ज्ञातृत्वं तथा घटस्यापि ज्ञातृत्वप्रसङ्गः, समवायस्य नित्यस्यैकस्य व्यापिनः सर्वत्राप्यविशेषादित्यत्र बहुवक्तव्यम् तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगौरवभयात् 1 ततश्चात्मनः पदार्थपरिच्छेदकत्वमङ्गीकुर्वाणैश्चैतन्यस्वरूपताप्यस्य गले पादिकान्यायेन प्रतिपत्तव्येति स्थितं चैतन्यलक्षणो जीव इति । जीवश्च
स्वभाव
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