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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, बेंइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये नौ प्रकार के जीव
शंका : जीव के लक्षण से युक्त बेइन्द्रियादि में जीवत्व मानना उचित है। परंतु पृथ्वी आदि में जीवत्व किस तरह से श्रद्धेय (श्रद्धा करने योग्य) बन सकेगा ? क्योंकि पृथ्वी इत्यादि में जीवत्व की सिद्धि करनेवाला स्पष्ट कोई लिंग उपलब्ध होता नहीं है। इसलिए पृथ्वी आदि में जीवत्व माना नहीं जा सकता।
समाधान : यद्यपि आपकी बात सच है कि, पृथ्वी आदि में जीवत्व की सिद्धि करनेवाले व्यक्त लिंग की अनुपलब्धि है। तो भी पृथ्वी इत्यादि में जीवत्व को मानने में अव्यक्त लिंग उपलब्ध होता ही है। जैसे हृत्पूर (धतूरे) से मिश्रित मदिरापान इत्यादि से मूच्छित हुए जीवो में व्यक्त लिंग का अभाव होने पर भी अव्यक्त लिंगो के द्वारा “यह सजीव है" ऐसा सजीव के रुप से व्यवहार किया जाता है। इस अनुसार से पृथ्वी इत्यादि में भी अव्यक्तलिंगो से सजीव के रुप में व्यवहार करना चाहिए।
शंका : मूच्छित जीवो में श्वासोश्वास स्वरुप अव्यक्त चेतना का लिंग (चिह्न) होता है। परंतु पृथ्वी इत्यादि में वैसे प्रकार का कोई चेतना का लिंग होता नहीं है। इसलिए पृथ्वी इत्यादि को जीव माना नहीं जा सकता।
समाधान : आप कहते हो वैसा नहीं है, क्योंकि जैसे हमारे शरीर में गुदा के आसपास होनेवाले मसे नये नये मसेको उत्पन्न करके शरीर की सजीवता को बताते है, वैसे पृथ्वीकाय जीवो में भी अपने अपने आकार में अवस्थित (रहे हुए) नमक, विद्रुम, पत्थर इत्यादि में समानजातीय अंकुरो की उत्पत्ति देखने को मिलती है। यही पृथ्वीकाय की सजीवता में प्रमाण है । अर्थात् नमक की खान में से नमक निकाल लेने के बाद भी उसमें नये-नये अंकुर फूटते होते है। समुद्र में होनेवाले विद्रुम में भी नित-नित नये अंकुर फूटते दिखते है और पत्थर की खान में से भी पत्थर में से अंकुर फूटते दिखाई देते है। यही नमक इत्यादि पृथ्वीकाय की सजीवता में प्रमाण है।
इसी ही तरह से संभवित एक चेतनारुप लिंग से युक्त अव्यक्त चेतनावाली वनस्पति में भी सजीवता का स्वीकार करना चाहिए। विशिष्टऋतु में (वनस्पति) फल देती होने के कारण वनस्पति में चैतन्य स्पष्ट रुप से सिद्ध ही है। फिर भी उसकी सिद्धि आगे करेंगे। इसलिए (पृथ्वी में) अव्यक्त उपयोगादि स्वरुप चैतन्य लक्षण का सद्भाव होने से पृथ्वी सचित्त है, वह सिद्ध होता है।
ननु च विद्रुमपाषाणादिपृथिव्याः कठिनपुद्गलात्मिकायाः कथं सचेतनत्वमिति चेत् ? नैवं, उच्यते-यथास्थि शरीरानुगतं सचेतनं कठिनं च दृष्टं, एवं जीवानुगतं पृथिवीशरीरमपीति । अथवा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयो जीवशरीराणि, छेद्यभेद्योत्क्षेप्यभोग्यप्रेयरसनीयस्पृश्यद्रव्यत्वात, सास्नाविषाणादिसंघातवत् । नहि पृथिव्यादीनां छेद्यत्वादि दृष्टमपह्नोतुं शक्यम् । नच पृथिव्यादीनां जीवशरीरत्वमनिष्टं साध्यते, सर्वस्य पुष्टलद्रव्यस्य द्रव्यशरीरत्वाभ्युपगमात् । जीवसहितत्वासहितत्वं च विशेषः । अशस्त्रोपहतं पृथिव्यादिकं
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