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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
दीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोष्मवत् । न चादित्यादिभिरनेकान्तः, सर्वेषा-मुष्णस्पर्शस्यात्मसंयोगपूर्वकत्वात् । तथा सचेतनं तेजः, यथायोग्याहारोपादानेन वृद्ध्यादिविकारोपलम्भात्, पुरुषवपुर्वत् । एवमादिलक्षणैराग्नेय-जन्तवोऽवसेयाः ।।३।। व्याख्या का भावानुवाद :
जैसे रात में खद्योत (जूगनु) के देह में परिणमित हुई जीव के प्रयोग से उत्पन्न हुई प्रकाशशक्ति प्रकाशित होती है। (अर्थात् रात में खद्योत का शरीर (कुछ) उजाला फैलाता है। वह उजाला जीव के प्रयोग द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति का प्रत्यक्ष फल है । इसलिए खद्योत के देहरुप में परिणमित हुई प्रकाशशक्ति जैसे जीवप्रयोगनिमित्तक है ।) वैसे अंगारादि में भी प्रतिविशिष्ट प्रकाशादिशक्ति का अनुमान किया जाता है। क्योंकि जीव के प्रयोग विशेष से प्रकट हुई है।
अथवा... जैसे बुखार की उष्मा जीवप्रयोग का अतिक्रमण करता नहीं है, (अर्थात् बुखार से शरीर गरम हो जाता है, तब जीव के प्रयोग (संयोग) बिना होता नहीं है, वह देखा जा सकता है। अर्थात् बुखार से शरीर का गरम हो जाना वह जीव के संयोग का चिह्न है।) उसी ही तरह से अग्नि की गरमी भी जीव के संयोग के बिना संभव नहीं है। इसलिए अग्नि की गरमी में जीव का संयोग अवश्य मानना चाहिए। वैसे ही मृतशरीर में बुखार दिखाई नहीं देता है। क्योंकि उसमें जीवसंयोग नहीं है। सारांश में, जीवितशरीर बुखार के कारण गरम हो जाता है। क्योंकि जीव का संयोग है। और मृतशरीर में बुखार आता न होने से गरमी भी नहीं दिखाई देती, क्योंकि जीव का संयोग नहीं है। इस अनुसार के अन्वय-व्यतिरेक से अग्नि की सचित्तता सिद्ध होती है। अनुमान प्रयोग : "अंगारे इत्यादि का प्रकाश परिणाम आत्मा के संयोग से प्रकट होता है। क्योंकि वह प्रकाश शरीर में रहा हुआ है। जैसे कि, खद्योत के देह का प्रकाश परिणाम।" तथा "अंगारे इत्यादि की उष्मा आत्मा के संयोगपूर्वक होती है। क्योंकि वह उष्मा शरीर में रही हुई है, जैसे (शरीर में रही हुई) बुखार की उष्मा ( गरमी)।" यह उभय अनुमानो से अग्नि की सचित्तता सिद्ध होती है।
"सूर्य इत्यादि द्वारा हेतु व्यभिचारी बनता है।" ऐसा नहीं कहना । क्योंकि सूर्य इत्यादि सभी पदार्थो का उष्णस्पर्श (गरमी) और प्रकाश आत्मा के संयोगपूर्वक ही होता है। अर्थात् सूर्य जीव के संयोग के कारण सूर्य में से गरमी और प्रकाश प्रकट होते है। इसलिए हेतु व्यभिचारी नहीं है।
तथा अग्नि सचेतन है। क्योंकि यथायोग्य आहार (इन्धन) को ग्रहण करके वृद्धि इत्यादि विकारो को प्राप्त करता है। (अर्थात् अग्नि इन्धनरुप आहार के संयोग से वृद्धि को प्राप्त करता है।) जैसे कि, (यथायोग्य आहार ग्रहण द्वारा वृद्धि प्राप्त करता) मनुष्य का शरीर इस तरह अनेक हेतु के द्वारा अग्नि के जीवो की सिद्धि जान लेनी चाहिए। इस तरह से अग्नि में सजीवता की सिद्धि हुई। अब वायु में और वनस्पति में सजीवता की सिद्धि करते है।
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