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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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में आत्मा को कहना अयोग्य है। असत् वस्तु को भी कर्ता माना जायेगा तो आकाशकुसुम से भी चेतना की उत्पत्ति माननी पडेगी। अर्थात् आकाशकुसुम भी चेतना का कर्ता बनने की आपत्ति आयेगी। ___ इसलिए प्रसिद्ध ऐसे शरीर को ही जानना, देखना, इत्यादि चेतना का कर्ता मानना युक्त है और वैसे प्रकार के अन्वय - व्यतिरेक से भी चेतना के कर्ता के रुप में शरीर ही सिद्ध होता है।
यहाँ प्रयोग इस अनुसार से है। "जो जिसके अन्वय - व्यतिरेक का अनुसरण करता है, उसे उसका कार्य कहा जाता है । जैसे मृत्पिड का कार्य घट ।" अर्थात् "जहाँ मृत्पिड है । वहाँ घट है और जहाँ मृत्पिंड नहि है वहाँ घट नहीं है।" ऐसे अन्वय-व्यतिरेक से मृत्पिड के कार्य के रुप में घट की सिद्धि होती है। इसी तरह से शरीर के अन्वय - व्यतिरेक का चैतन्य अनुसरण करता है अर्थात् जहाँ शरीर है वहाँ चैतन्य है तथा जहाँ शरीर नहीं है वहाँ चैतन्य नहीं है, ऐसे प्रकार के अन्वय व्यतिरेक से शरीर और चैतन्य में कार्य कारणभाव सिद्ध होता है। इसलिए चैतन्य के कर्ता के रुप में शरीर की सिद्धि होती है।
जगत में जिन जिन पदार्थो के बीच कार्य-कारण भाव देखने को मिलता है, वह अन्वय-व्यतिरेक के योग से देखने को मिलते है। और ऐसे अन्वय - व्यतिरेक यहाँ उपलब्ध होता है। शरीर होने से चैतन्य उपलब्ध होता है और शरीर के अभाव में चैतन्य उपलब्ध होता नहीं है। ___ ऐसे अन्वय-व्यतिरेक से शरीर-चैतन्य के बीच कार्य-कारणभाव सिद्ध होता है। इसलिए चैतन्य का कर्ता शरीर ही है। __ शंका : मृतशरीर में चैतन्य की उपलब्धि होती नहीं है। इसलिए चैतन्य और शरीर के बीच अन्वयव्यतिरेक से अविनाभाव बताया था वह असिद्ध है। क्योंकि मृतशरीर में चैतन्य न होने से अन्वय-व्यतिरेक अनुविधायित्व नहीं है।
समाधान ( चार्वाक) : मृतअवस्था में वायु और तैजस का अभाव होने से शरीर का ही अभाव है, क्योंकि विशिष्टभूत के संयोग को ही शरीर के रुप में प्रतिपादित किया है। अर्थात् जब विशिष्टभूतो का संयोग हो, तब ही उसे शरीर कहा जाता है। मृत अवस्था में वायु-अग्नि का अभाव होने से विशिष्ट भूतो का संयोग नहीं है। इसलिए विवक्षित शरीर नहीं है।
तथा केवल शरीर का आकार हो इतने मात्र से वह शरीर में चैतन्य की उत्पत्ति होती है -- वह कहना युक्त नहीं है। (इसलिए मृत अवस्था में केवल शरीर का आकार होने मात्र से उसमें चैतन्य की उत्पत्ति होनी ही चाहिए, ऐसा आग्रह रखना युक्त नहीं है।) अन्यथा (शरीर के आकारमात्र की विद्यमानता में ही उस शरीर में चैतन्य की उत्पत्ति का स्वीकार किया जाये तो) चित्र में बनाये हुए घोडे आदि में भी चैतन्य की उत्पत्ति होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि उस चित्र में भी घोडे के शरीर का आकार विद्यमान ही है।। ___ इसलिए सिद्ध होता है कि चैतन्य शरीर का कार्य ही है। और इसलिए चैतन्ययुक्त शरीर में ही अहम्प्रत्यय
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