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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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असमीक्षित = अविचारणीय कथन है। क्योंकि प्रत्यक्ष से ही आत्मा का सद्भाव सिद्ध होता होने से आत्मा की सिद्धि करनेवाले प्रमाण का सद्भाव है ही । वह इस अनुसार से "मैं सुख का अनुभव करता हूं" इस प्रतिभास में अन्योन्यविविक्त ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान का उल्लेखि स्वसंवेदन प्रत्येक जीवो को होता है । अर्थात् "मैं सुख का अनुभव करता हूं।" इस प्रतिभास में सुख का अनुभव करनेवाला ज्ञाता, अनुभव आनेवाला विषयभूत सुख (ज्ञेय) तथा अनुभव होने रुप ज्ञान - ये तीनो वस्तुओ को स्वतंत्ररुप से प्रत्येक वो को अनुभव हो रहा है। उसमें अनुभव करनेवाला "मैं" शब्द का वाच्यपदार्थ ही आत्मा है। (उपरोक्त प्रतिभास निर्बाध रुप से होता ही है ।) इसलिए वह मिथ्या भी कहा नहि जा सकता ।
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तथा उपरोक्त प्रतिभास निश्चित एक कोटि को विषय करता होने से अर्थात् उभयकोटि संस्पर्श का अभाव होने से संदिग्ध (संशय) रुप भी नहीं है। (विरुद्ध दो कोटि में होनेवाले प्रतिभास को संशय कहा जाता है। यहां केवल एक कोटि में प्रतिभास होता होने से संशयरूप नहीं है ।)
"मैं सुख का अनुभव करता हूं" - यह निर्बाध ज्ञान निर्विषयक है । अर्थात् आलंबनरहित है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उस तरह से तो प्रत्येक ज्ञान निरालंबन मानने की आपत्ति आयेगी । "यह घट है, यह रूप है ।" (ऐसे ज्ञानो को आप सत्य मानते हो, वे) ज्ञान भी निरालंबन मानने की आपत्ति आयेगी । इसलिए मिथ्या मानना पडेगा और वैसा तो है ही नहीं। इसलिए उपरोक्त प्रतिभास को निर्विषयक नहीं माना जा सकेगा।
उपरोक्त प्रतिभास शरीर को विषय (आलंबन) बनाता है - ऐसा भी नहीं कहा जा सकेगा। क्योंकि उपरोक्त प्रतिभास बाह्यकारण से निरपेक्ष अंतःकरण के व्यापार से उत्पन्न होता है । अर्थात् कहने का मतलब यह है कि शरीरादिपदार्थो का प्रतिभास तो चक्षुआदि बाह्य इन्द्रियो से होता है, जब कि "मैं सुखी हूं", इत्याकारक प्रत्यक्ष में बाह्य इन्द्रियो की कोई आवश्यकता ही नहीं है । वह तो शुद्ध मनोव्यापार से ही उत्पन्न होता है। इसलिए मानसिक ज्ञान है तथा केवल मनोव्यापार से होनेवाले ज्ञान में शरीर आलंबन बन सकता ही नहीं है। शरीर तो (घटादि पदार्थो की तरह) चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियो से जाना जा सकता है। (जो अचेतन है तथा बाह्य इन्द्रियो के द्वारा जाना जा सकता है। वह कभी भी मानसिक “अहम्” प्रत्यय का विषय नहीं बन सकता है ।)
इसलिए इस "अहम् " प्रत्यय का विषय शरीर से अतिरिक्त कोई ज्ञानवाला पदार्थ मानना ही चाहिए । क्योंकि "मैं सुखी हूं", ऐसे प्रतिभास में " अहम् " शब्द का वाच्य जो है, वही ज्ञाता है - वही आत्मा जीव है - इस तरह से ( मानसिक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही आत्मा की सत्ता की सिद्धि में प्रमाण है 1)
तथा "चेतना के योग से शरीर सचेतन बनता है और वह सचेतन शरीर ही " अहम् " प्रत्यय का विषय बनता है ।" आपकी यह बात बिलकुल अयुक्त है, प्रलापमात्र है। क्योंकि चेतनायोग में स्वयं चेतन ही “अहम्” प्रत्यय का विषय बने वह युक्त है । परन्तु स्वयं अचेतन ऐसा शरीर विषय बने वह लेशमात्र योग्य नहीं है। जैसे हजारो प्रदीप (दीये) की प्रभा के योग में भी स्वयं अप्रकाशस्वरुप घट प्रकाशरुप
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