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सृष्टिखण्ड ]
.नाना प्रकारके व्रत, सान और तर्पणकी विधि तथा धर्ममूर्तिकी कथा .
दिये थे। मुझे आप इन्द्र समझें। मुनिवरो ! आपने लोभके उपवासपूर्वक निवास करे, उसे अक्षय फलकी प्राप्ति परित्यागसे अक्षय लोकोंपर विजय पायी है। अतः इस होती है। वनवासी महर्षियोंके लिये जो बारह वर्षोंकी विमानपर बैठिये, अब हमलोग स्वर्गलोकको चलें। यज्ञ-दीक्षा बतायी गयी है, उसका पूरा-पूरा फल उस
तब महर्षियोंने इन्द्रको पहचानकर उनसे इस मनुष्यको भी मिल जाता है। उसकी कभी दुर्गति नहीं प्रकार कहा।
होती। वह सदा अपने कुलवालोंके साथ आनन्दका ऋषि बोले-देवराज ! जो मनुष्य यहाँ आकर अनुभव करता है तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीके एक मध्यम पुष्करमें नान करे और तीन राततक यहाँ दिनतक (कल्पभर) वहाँ निवास करता है।
नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें
राजा धर्ममूर्तिकी कथा __पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! ज्येष्ठ पुष्करमें गौ, कहलाता है। जो चैतके महीने में दही, दूध, घी और मध्यम पुष्करमें भूमि और कनिष्ठ पुष्करमें सुवर्ण देना गुड़का त्याग करता और गौरीकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे चाहिये। यही वहाँके लिये दक्षिणा है। प्रथम पुष्करके ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें महीन वस्त्र और देवता श्रीब्रह्माजी, दूसरेके भगवान् श्रीविष्णु तथा रससे भरे पात्र दान करता है, उसपर गौरीदेवी प्रसन्न तीसरेके श्रीरुद्र हैं। इस प्रकार तीनों देवता वहाँ होती हैं। यह 'गौरीव्रत' भवानीका लोक प्रदान पृथक्-पृथक् स्थित है। अब मैं सब व्रतोंमें उत्तम करनेवाला है। जो आषाढ़ आदि चातुर्मास्यमें कोई भी महापातकनाशन नामक व्रतका वर्णन करता हूँ। यह फल नहीं खाता तथा चौमासा बीतनेपर घी और गुड़के भगवान् शङ्करका बताया हुआ व्रत है। रात्रिको अन्न साथ एक घड़ा एवं कार्तिककी पूर्णिमाको पुनः कुछ तैयार करके कुटुम्बवाले ब्राह्मणको बुलाये और उसे सुवर्ण ब्राह्मणको दान देता है, वह रुद्रलोकको प्राप्त होता भोजन कराकर एक गौ, सुवर्णमय चक्रसे युक्त त्रिशूल है। यह 'शिवव्रत' कहलाता है। तथा दो वस्त्र-धोती और चद्दर दान करे । जो मनुष्य जो मनुष्य हेमन्त और शिशिरमें पुष्पोंका सेवन इस प्रकार पुण्य करता है, वह शिवलोकमें जाकर छोड़ देता है तथा अपनी शक्तिके अनुसार सोनेके तीन आनन्दका अनुभव करता है। यही महापातकनाशन व्रत फूल बनवाकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको भगवान् श्रीशिव है। जो एक दिन एकभक्तव्रती रहकर-एक ही अत्रका और श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनका दान करता है, भोजन कर दूसरे दिन तिलमयी धेनु और वृषभका दान वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता करता है, वह भगवान् शङ्करके पदको प्राप्त होता है। यह है। जो फाल्गुनसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी पाप और शोकोंका नाश करनेवाला 'रुद्रव्रत' है। जो तृतीयाको नमक छोड़ देता है और वर्ष पूर्ण होनेपर एक वर्षतक एक दिनका अन्तर दे रात्रिमें भोजन करता भवानीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन है तथा वर्ष पूरा होनेपर नील कमल, सुवर्णमय कमल करके उन्हें शय्या और आवश्यक सामग्रियोसहित गृह और चीनीसे भरा हुआ पात्र एवं बैल दान करता है, वह दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'नीलवत' करता है। इसे 'सौभाग्यवत' कहते हैं। जो द्विज एक कहलाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार महीनोंतक वर्षतक मौनभावसे सन्ध्या करता है और वर्षके अन्तमें तेलकी मालिश छोड़ देता है और भोजनकी सामग्री दान घीका घड़ा, दो वस्त्र-धोती और चद्दर, तिल और करता है, वह भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है। यह घण्टा ब्राह्मणको दान करता है, वह सारस्वतलोकको प्राप्त मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाला होनेके कारण 'प्रीतिव्रत' होता है, जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता।