Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड • शिक्षागुरु का प्रभाव
बालक हस्ती के जीवन-निर्माण में बाबाजी श्री हरखचन्दजी म.सा. का बड़ा योगदान रहा। उन्हीं की सत्प्रेरणा | एवं सम्बल से माता रूपादेवी एवं पुत्र हस्ती एक दिन प्रव्रज्या अंगीकार करने की अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने में | समर्थ हुए। बाबाजी श्री हरखचन्द जी म. को जब यह ज्ञात हुआ कि पीपाड़ में एक माता एवं पुत्र विरक्त हैं तथा दोनों संयम-मार्ग का अनुसरण करना चाहते हैं तो इससे उन्हें अतीव प्रमोद हुआ। पीपाड़ तो वे विचरण करते हुए आ ही रहे थे, किन्तु श्रावकजनों से इस सूचना को सुनकर विरक्तात्माओं के प्रति भी उनके मन में एक प्रमोद का भाव जागृत हुआ। जब स्वामीजी श्री हरखचन्द जी म.सा. पीपाड़ पधारे तो अन्य श्रावक-श्राविकाओं के साथ रूपादेवी भी सन्त-दर्शन के लिए स्थानक में आई। पुत्र हस्तीमल भी साथ में आया। सन्तों के दर्शन कर हस्ती को उनमें आत्मीयता का भाव परिलक्षित हुआ। स्वामी श्री हरखचन्द जी म. ने भी माता रूपा के उत्कृष्ट वैराग्य और हस्ती की तीक्ष्णबुद्धि एवं धर्मानुरागिता के सम्बंध में पहले ही सुन रखा था। वे उसकी प्रतिभा एवं वैराग्य का परीक्षण करना चाहते थे। उन्होंने बालक हस्ती से प्रश्न किया-"वत्स ! तुम्हारा नाम क्या है ?"
"गुरुदेव ! मुझे हस्तिमल्ल कहते हैं।" "वत्स ! तुमने क्या-क्या सीखा है?"
“मैंने पौशाल (पाठशाला) में पढ़ना-लिखना, महाजनी गणित और प्रारम्भिक धार्मिक-ज्ञान प्राप्त किया है। घर | पर माताजी से भी सीखता रहता हूँ।"
“तुम्हारी माता तो अब शीघ्र दीक्षित हो जाना चाहती है। माता के दीक्षित हो जाने पर तुम क्या करोगे, क्या इस बात पर तुमने विचार किया है?"
“भगवन् ! माँ दीक्षा ग्रहण कर रही है तो मैं भी उनका अनुसरण करूंगा। मेरा मन भी उनके साथ ही दीक्षा | लेने का है।"
माता और पुत्र दोनों के साथ सम्पन्न बातचीत से स्वामीजी को पूर्ण विश्वास हो गया कि वे दोनों मुक्तिपथ | पर आरूढ होने के लिए कटिबद्ध हैं।
स्वामीजी से बातचीत के पश्चात् रूपादेवी अपने पुत्र के साथ घर लौट आयी। खाना बनाकर थाली पुत्र के | समक्ष रखी, दूसरी रोटी परोसते समय माता ने देखा कि थाली ज्यों की त्यों रखी है और हस्ती विचारमग्न है।
माँ ने पूछा-“खाना नहीं खा रहे हो? किस विचार में खोये हो?
विचारतन्मयता से चौंक कर हस्ती ने कहा- “माँ मुझे तो भोजन का ध्यान ही नहीं रहा। मैं तो स्वामीजी महाराज के साथ हुई बातचीत के बारे में सोचता रहा।
"माँ, तुमने देखा नहीं? मुझ पर उनका कितना अगाध स्नेह था।" भोजन कर लेने के उपरान्त हस्ती ने कहा-"माँ यदि तुम कहो तो मैं स्वामी जी के पास जाकर उनसे कुछ सीखू ।” माँ ने अनुज्ञा प्रदान करते हुए कहा“जरूर जाओ।”
बालक हस्ती सीधा स्वामी जी की सेवा में पहुँचा और बड़ी देर तक स्वामी जी के पास ज्ञानाभ्यास करने के साथ-साथ अनेक नई बातें सीखता रहा । उसका मन क्षणभर के लिए भी स्वामीजी से विलग होना नहीं चाह रहा था।
वातावरण में मधुर मुस्कान से अमृत सा घोलते हुए स्वामीजी ने बालक से कहा-“वत्स ! जब भी तुम्हारी)