Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं गंभीर मुख मुद्रा में ही देखा है। मैंने अपनी बाल बुद्धि के अनुसार तुम्हारी इस उदासीन वृत्ति पर, प्रायः सभी स्त्रियों से भिन्न प्रकृति पर, कई बार विचार किया है और इन पर विचार करते-करते मेरी स्वयं की वृत्ति और प्रवृत्ति भी लगभग तुम्हारे जैसी ही बन गई है। माँ ! तुम्हारे इस उदासीन जीवन का तुम्हारी चिन्तन धारा का, तुम्हारी विरक्ति
और अनुभूतियों का, मुझ पर भी प्रभाव पड़ा है। मैंने अपने साथियों को, उनके पिता से मिले प्यार-दुलार को जब-जब भी देखा, तब-तब मेरे मानस में भी संसार की दशा के सम्बंध में तरह-तरह की विचार तरंगें उठी हैं। तुम्हारे ही कृपा प्रसाद से मैंने भी अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार इस संसार की भयावह दुःखद स्थिति को थोड़ा-थोड़ा समझा है। माँ ! तुम्हारे नियमित धर्माराधन, चिन्तन-मनन और जाप आदि को देख कर न मालूम कब से मेरी यह धारणा बन चुकी है कि जो तुम कह रही हो वह सही है। वास्तव में संसार असार है, यहाँ कोई रहने वाला नहीं। जो आया है एक दिन सबको जाना है। ननिहाल में मैंने भी अपनी आँखों से इस संसार की नश्वरता को देखा है। मेरा भी मन संसार में रहने का नहीं है। तुम अपना मन दीक्षा का बना रही हो, तो मैं भी तुम्हारे साथ ही दीक्षित होना चाहता हूँ। संसार में रहकर क्या करना है। सन्तों की सत्संग ही मेरे मन को भाती है। उनके साथ ही मैं अपना जीवन बिताना चाहता हूँ तथा ज्ञान-ध्यान सीखकर जीवन को सार्थक करना चाहता हूँ। माँ ! संसार के प्रपंच में फंसे हुए अनेक लोगों को मैं दुःखी होते हुए देखता हूँ। दूसरी ओर देखता हूँ कि साधु-साध्वी सब प्रकार के प्रपंचों से दूर हैं। इनके मुख पर सदा विराजमान शान्ति और संतोष के साम्राज्य को देखकर मेरा मन भी होता है कि है कि मैं भी ऐसी
त को प्राप्त करूँ। माँ! मैं इस बार महासतीजी धनकंवर जी महाराज के निकट सम्पर्क में आया, उनके शान्त | एवं पवित्र जीवन से, उनके उपदेशों से मैंने इस बार जो सीखा है, उससे अद्भुत आनंद का अनुभव किया है, वह सब मैं तुम्हारे सामने शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर सकता। मैंने तुम्हारे साथ चौधरी जी की पोल में जाकर महान् धर्माचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज के भी दर्शन किये थे, उनके उपदेश भी सुने थे। उनकी शान्त, दान्त, सौम्य सम्मोहक मूर्ति आज भी मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही है। उनकी मधुर वाणी आज भी मेरे कानों में अनेक बार गूंजती रहती है। माँ ! उन पूज्यश्री के प्रथम दर्शन के समय से ही मेरा मन जीवन भर उनके चरणों की सुखद शीतल छाया में | | रहने को करता है। उन्हें पहली बार देखने पर भी मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने उन्हें अनेक बार देखा है।"
पुत्र की बातें सुनकर रूपादेवी को मन ही मन विश्वास हो चला कि उसका होनहार हस्ती भी त्यागमार्ग का पथिक बनने का दृढ़ संकल्प कर चुका है। इससे आश्चर्य के साथ-साथ उनके आनंद एवं हर्ष का भी पारावार न रहा। रूपादेवी के नेत्रों से हर्षाश्रुओं की अविरल धाराएं प्रवाहित हो उठीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानों सुदीर्घावधि से दुःखदावाग्नि दग्ध संतप्त यशस्वी बोहरा कुल के गृहांगण का समस्त ताप-संताप हरने के लिए अमृततोया गंगा और यमुना प्रवाहित हो उठी हों। रूपादेवी का मुखमंडल असीम आनंद की अलौकिक आभा से दमक उठा। अपने करतल युगल से पुत्र के मस्तक एवं कपोलों को शनैःशनैः सहलाती हुई माता रूपादेवी ने हर्षावरुद्ध कण्ठस्वर में केवल इतना ही कहा-"वाह वत्स ! तुम्हारे विचार सुनकर एवं तुम्हारा निश्चय जानकर मैं धन्य -धन्य हूँ। मुझे तुम्हारी माता होने पर गर्व है।"
___ तदनन्तर रूपादेवी अपने धर्माराधन के समय में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि करती रही। श्री हस्ती भी पाठशाला से लौटने के पश्चात् अपनी माता के पास बैठ कर पौशाल में पढ़े गए विषय के पाठों और महासतीजी बड़े धनकंवर जी आदि साध्वियों से प्राप्त धार्मिक ज्ञान का पुनरावर्तन करते रहे।