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शिष्य-प्रश्न
शिक्षाप्रद है इतिहास सभी, हर प्राणी को नरनारी क्या। यदि चातक को ना बुन्द मिले, क्या करे विचारा वारिवाह ।।
दोहा आप्त के उपदेश मे, दोष नही लवलेष । आगे मति श्रुति ज्ञानि का, होगा कथन विशेष ॥ ग्यारह लाख छियासी सहस्र और साढ़े सौ सात । वर्ष पूर्व थे विचरते, मुनि सुव्रत जगनाथ ॥ साढ़े बाइस सहस्र वर्ष, बीते थे गृहस्थाश्रम मे । फिर साढ़े सात हजार वर्ष, भोगे थे सन्यासाश्रम मे ॥ निर्वाण वाद इस भारत मे था, विद्यमान इनका शासन । सत्य भूति कुल भूषण आदि, मुनियो का था ऊंचा आसन ॥
दोहा
पंच परमेष्ठी नमन से, पड़े अरि के त्रास । बदला ले अरु सुख मिले, फल निर्वाण निवास ॥
गाना नं. १ शोरो गुल को बन्द करके, लो मजा अब इस कहानी का । नेकों की नेक नामी और बदो की भी नादानी का ॥ स्थायी थे भाई राम और लक्ष्मण, प्रेम दोनो प्राणी का। जमाना गौर कर देखा, मिला नहीं कोई शानी का ॥ पिता के ऋण को तारा था, जो था कैकयी महारानी का।
आप बनवास को धाये, तजा सुख राजधानी का ॥ पर कारण ही तन मन धन, से था प्रयोग वाणी का। सार यह ही समझ रक्खा था, अपनी जिंदगानी का ॥