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रावण दिग्वि य
प्रभव चतुर सुनाम, मित्र दोनो रहते मंगल मे । एक दिवस ले गया, उड़ा घोड़ा नृप को जंगल मे || पल्ली पति की सुता नाम, वन माला मिली उपवन से। - नृप से करके विवाह, खुशी से, आई राज भवन में ।
दौड़ प्रभव आ मिला चाव से, पूछता कुशल भाव मे । जब रानी को देखा है, लगा काम का बाण तुरत पागल सा बन बैठा है ।।
दोहा सुमित्र ने पूछा प्रभव से, कैसा आर्तध्यान । साफ प्रभव ने कह दिया, जो था दिली अरमान ।। जो था दिली अरमान, सुमित्र सुन खुशी हुवा अति मन में। मांगो देवे प्राण मित्र यह, कौन चीज चीजन में। दई आजा जावो रानी, मम मित्र के महलन में । रानी दई संभाल, आप छिप सुने शब्द कानन मे ॥
दौड़ प्रभव से कहे उचारी, कौन नाचीज मै नारी। मेरा पति देव है ऐसा, मांगे पर देवे जान तलक क्या चीज नार और पैसा ।
दोहा
गौरव की यह बात सुन, गिरा चरण में आन । धन्य धन्य मम मित्र है, वन्य तू मात समान ॥ महापापी चाण्डाल दुष्ट में धर्म वृक्ष का कातिल हूं। खुद पै कटार से वार करू', मैं मर जाने के काबिल हूं।