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रामायण
दोहा
महीधर से आज्ञा लई वन जाने की राम । लक्ष्मण से कहने लगी, सा वनमाला ताम ।। प्राणदान दातार तुम, अब क्या तजो निराश । दासी की यह विनती, चलूसाथ वन वास ।।
छन्द दुख विरह का अतुल यह मुझसे सहा नहीं जायगा। याद कर कर आप की यह मन मेरा घवरायगा ॥ सीता की सेवा में करूंगी तुम करो श्रीराम की। सोच ले मन में जरा, मै तो हूं साथिन जानकी ॥ बोले अनुज अयि भामिनी, ज्यादा न हठ अब कीजिये। वापिसी में साथ लेंगे मन को तसल्ली दीजिये । समझाया वनमाला को लक्ष्मण राम आगे को चले । थकती जहाँ सीता वहाँ विश्राम लेते द्रम तले ।।
दोहा वन खंड से आगे बढ़े, क्षेमा जल पुर पास | उद्यान देख कहने लगे, मिला दृश्य यह खास ॥ थे बाग जलाशय स्वाभाविक, अद्भुत ही रङ्ग दिखाते हैं। क्या यही स्वर्ग का टुकड़ा है,, जो कवि कथन कथ गाते हैं ।। उसी जगह विश्राम किया, फल फूल अनुज कुछ लाये हैं। फिर संस्कार किया सीता ने, सिया राम अनुज ने खाये हैं। जब अहार किया फल फूलों का बस और नहीं दरकार रही। सब देख देख खुश होते हैं, नहीं मिला दृश्य यह और कहीं ।। फिर अनुज राम की आज्ञा पा, नगरी की सैर सिधाया है। नृप शत्रु दमन की प्रतिज्ञा का भेद अनुज ने पाया है।