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निग्रन्थ मुनि
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श्री प्रभ नाम एक अन्य भूप के, सुन्दर राज दुलारी थी। अनुधर कहता था मुझे विवाह दो, उसको यही वीमारी थी। नृप ने न विवाही अवुधर को, किसी अन्य भूप को परणाई। जब आस निरास हुआ अनुधर, तो मन मे अति अरती आई ।। फिर लगा उजाडन देश भूप का, क्रोध में अन्धा बना हुआ।
शिक्षा न हृदय में धरी किसी की, मान मे ऐसा तना हुआ। तब पकड़ एक दिन राजा ने, निज कैद मे उसे ठुकाया था। फिर रत्न रथ भूप ने आकर, उसको तुरत छुड़ाया था। जा बना तापसी तापस के डेरे, नहीं घर मे आया है। अशुभ कर्म की चाल सदा, उल्टी श्री जिन फर्माया है। प्रमाद महा शत्रु आत्म को , सदा महा दुःख देता है। और सम्यक्त्व धारी जीव कोई, शुद्ध ज्ञान चारित्र लेता है ।।
दोहा (कुल) बाल कष्ट वहाँ पर किया, फेर भ्रमा संसार । कभी पशु क्भी नर्क में, फिर तापस अवतार ।। अज्ञान कष्ट महा तप किया, करी कुगुरु की सेव ।
अन्यत्म जोतिष चक्र मे, अनल प्रभु हुवा देव ।। उधर रत्नरथ और चित्ररथ, दोनो ने संयम धारा है। हुए अतिबल महाबल नाम बारहवे, स्वर्ग गये सुख भारा है।। सुरपुर तज विमला रानी के, फिर हम दोनों ने जन्म लिया ।। कुल भूषण और देश भूषण, व्यवहार मात्र यह नाम दिया।
छन्द बालपन से मात पितु ने, सेज हम गुरुकुल दिये। अचाय के वर्ष बारह तक, हमे सुपुर्द किये ॥