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रामायण
दोहा लब्धी धार मुनि के, चरण फरसे पक्षी ताम !
देह कंचन वर्णी हुई, देख अचंभे राम ॥ देख अचंभे राम फेर, मनि आगे अर्ज गुजारी। कौन कर्म का फल प्रभु इसने, भोगी विपदा भारी ।। पूर्व हाल बतलाओ इसके, इच्छा यही हमारी । गला सड़ा जो तन था इसका, अब सुन्दर हितकारी ।।
दौड सुगुप्त मनि यो फरमावे, कर्म के फल बतलावे । ध्यान सिया राम लगावे, खंदक दंडक पालक के, सब भेद खोल. दर्शावे ।।
श्री स्कंधकाचार्य चरित्र अधिकार नृप था सावस्थी नगर में, जित शत्रु बलवान । रानी जिसके धारिणी, शोमन गुण की खान ।। धर्म न थी गुणवान पुत्र, एक जन्मा बंधक प्यारा । चौसठ कला प्रवीण, पुरन्दर यशा पुत्री सुखकारा ।। बहतर कला का ज्ञाता, स्कंदक जैन धर्म का प्यारा । रंग मंजीठी चढ़ा धर्म का, चर्चावादी भारा ।।
दौड़ कुम्भकार कट नगरी, दंडक राजा क्षत्री। पुरंदर यशा को ब्याहा, अब देखो आगे, गति कर्म की कैसा रंग खिलाया।