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रामायण
देखूं तेरा जोर करू पापी, धड़ से सिर न्यारा । निर्भय हो जा रहा लंक, नहीं जाना मिले सुखारा ॥ छोड़ अभी सीता को नही, मारू घर तान दुधारा । रामचन्द्र की नार चुरा, फांसा निज गल में डारा ॥ दौड़
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बेशर्म शर्म न आई, क्या अबला नार चुराई | भुजा फड़कें हैं मेरी, झेल मेरा ये वार, जान संकट मे आगई तेरी ।।
दोहा
रावण यो कहने लगा, जरा जरा मुस्काय । गीदड़ की वे कजा, ग्राम सामने जाय || उछल कूद कर मेंढक सा, किसको तलवार दिखाता है || प्रबल सिंह के ऊपर भी, आकर क्या धौस जमाता है ॥ जान बचाकर भाग अरे, मूर्ख क्यो प्राण गंवाता है । कोई गरीब मार न हो जावे, मुझको विचार यह आता है ||
दोहा
झगड़ा दोनों में बढ़ा, लगा होन संग्राम | रत्नजटी ने लगा दई, अपनी शक्ति तमाम || तीव्र हवा में टिक नही सकता पक्का आम । इसी तरह तूफान सम, रावण था उस धाम ।
छन्द
काट शस्त्र तोड़कर विमान सब बेपर किया । लाचार हो नीचे गिरा, कर्तव्य पूरा कर दिया | कंबू गिरी पर आ गिरा, कंबू ही नामा द्वीप है । गिरते गिरते छिल गया, सारा जिस्म क्या पीठ है ।