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सीता हरण
जैसे हवा चले पूर्व की, ध्वजा तुरन्त पश्चिम जाती । यदि चले पश्चिम की तो, फटखारा खा पूर्व आतीं ॥ मन मे सोच रही सीता, अपना नहीं धर्म गवाऊंगी । समय यदि आया तो रसना, खैच तुरन्त मर जाऊंगी ॥ दोहा (सीता)
शील रत्न ही रत्न है, बाकी सब पापा । कहा श्री सर्वज्ञ ने, मिले अन्त निर्वाण |
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जो नाक कान दोनो तोड़े, किस काम का वह फिर सोना है । यह ऐसा मुझको रूप मिला, बस रात दिवस का रोना है ॥ इस पापी रूप के कारण, पहिले, माता पिता ने दुख पाया । फिर भामण्डल भाई का मन था, इसी रूप ने भरमाया || और इसी रूप को अटवी मे, चोरो ने घेरा लाया था । उस समय श्री लक्ष्मण जी ने, उन सबको मार भगाया था । दोहा (सीता)
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कर्मो ने मुझ पर बुरा, डाला अब यह जाल । अनुमान सभी यह कह रहे, आने वाला काल || दुर्निवार यह आपत्ति, पापी मम धर्म गवांयेगा । प्राणान्त यहाॅ पर मैं कर दू, पीछे रघुपति मर जायेगा || धर्म त सब को त्यागो, सर्वज्ञ देव बतलाया है । यह बाकी सब संयोग जगत् के, झूठी सारी माया है ॥ राज्य पति परिवार सभी, अवसान मे एक दिन छूटेगा । यह तन मेरा चमकीला भांडा, अवश्यमेव ही फटेगा || चोट पड़ी अब सिर पर आकर, तो फिर क्या घवराना है । सर्वस्व चाहे अर्पण करढू ं, आत्म का धर्म बचाना है |