Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 441
________________ सीता हरण मूच्छित हुआ वहाँ से, फिसल कंदर के अन्दर जा पड़ा । सीता सहायक देख, अपना यो कहे रावण खड़ा || ४०१ दोहा (रावण) जनकसुता रहो रंग मे, सुख मे दुःख न दिखाय । भाग्य हीन संग राम के, फिरती थी वन मांय || मैं तीन खंड का नाथ, मेरे चरणो मे राजे गिरते हैं । उन सब के हृदय कांप उठे. जब मेरे नेत्र फिरते है ।। भूचर खेचर क्या तीन खंड के, भूप सभी आधीन मेरे । क्यों रोती है पटरानी बन जायेगी, खुल गये भाग्य तेरे ॥ थी कौवे रूप राम गल तू, रत्नो की माला पड़ी हुई । तब लौट गई थी किस्मत तेरी, अब दीखे कुछ चढ़ी हुई || शोभे दूध शंख अन्दर, और जैसे लाल अंगूठी में । ऐसे तू मेरे संग शोभे, शस्त्र शूरे की मुट्ठी मे ॥ शशि सहित रजनी शोभे, हस्ती शोभे दो दांतो से । मौन सहित मूर्ख शोभे, और चतुर आदमी बातो से || मोर शीश कलगी शोभे, शूरा शोभे रण के अन्दर । यो तेरी शोभा रंग महल मे, नहीं शोभती वन अन्दर || सब महारानियों के ऊपर, पटरानी तुझे बना दूगा । जो भी आज्ञा तुम देओगी, मस्तक पर उसे उठा लूंगा ॥ निर्भय निजमन मे हो जाओ, तुमको न कभी सताऊंगा | मै चाकर बनकर रहू तेरा, किंकर बन हुक्म बजाऊंगा || शुभ जगह सदा मोती शांभे, मन मे कुछ ध्यान लगाले तू । धैर्य धर दस बीस दिनो तक, और मुझे अजमा ले तू ॥ जो स्वयं हृदय से न चाहे, उस नारी का है नियम मुझे | बस यही जरा सी ष्टक हटा दे, साफ साफ अब कहूं तुझे ॥

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