Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 445
________________ सीता हरण ~^ wanAAAA तेरा धड़ से ले सिर तार, बनावे क्या मुझको पटरानी ||२|| तेरी सम्पति ऐशोआराम, खाक की मुट्ठी करू तमाम । मेरे भर्तार एक श्रीराम, बके मत कौवे सुनी कहानी ||३|| मुझे तू पैनी बर्छा जान, विष या कालकूट सामान । किया तै दुष्ट कर्म नादान, बचे न अव तेरी जिंदगानी || ४ || दोहा वचन काट करते हुये, सुने खुशी से भूप । जैसे सर्दी मे लगे, मीठी सबको धूप ॥ जैसे बाराती जन गाली, जान बूझ कर सहते है । सुन अयोग्य भाषा अधिकारी को, हजूर ही कहते है | यही हाल कामांधे का, कुछ नही समझ मे लाता है । वर्ताव देख वैदेही का, रावण मन को समझाता है || ४०५ दोहा (रावण) सीता की सब गालियों, मानो लगते फूल । जो मर्जी मुख से कहे, मुझे रंज न मूल ॥ 1 प्रेम पुराना राम सग है, नया नया यह काम सभी । किया तंग तो ऐसा न हो, खेल जान पर जाय कभी ॥ प्रेम पशु का भी जैसे अपने रक्षक से होता है। फिर यह तो राजदुलारी है, त्रिया हठ भी नहीं छोटा है | अब रोती हुई इसको महलों में ले जाना नहीं अच्छा है । सुन न लेवे रुदन कोई, जितना नर नारी बच्चा है ॥ देव रमण उद्यान बीच, एकान्त इसे ठहराना है । प्रेम भाव से शनैः-शनैः फिर, सीता को समझाना है ||

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