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सीता हरण
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परवाह नहीं कुछ मरने की, मै अभी जवान को काढ़ मरू। पर राम प्राण तज देवेगे, इसका कहो क्या मै इलाज करू॥
दोहा , सीता ऐसे कर रही, दुःख में रुदन अपार ॥
सुनने वाला कौन था, उस बन मे नर नार ।। अर्क जटी का पुत्र एक, जो रत्न जटी कहलाता था। विमान के द्वारा शूरवीर वह, कम्बुक द्वीप मे आता था। रुदन सुना जब सीता का, कुछ मन में जरा विचारा है। यह सिया बहन भामडल की, जो जिगरी मित्र हमारा है। श्री दशरथ की कुल वधू, रामचन्द्र की नार कहाती है। रावण हर के ले चला लक मे, अपना दुख सुनाती है ।। यदि लड़ में रावण से तो, निश्चय प्राण गगाऊंगा। पर कुछ भी हो क्षत्रापन को, हरगिज नही लाज लजाऊँगा ॥ जो कर्त्तव्य अपना पालूगा, बेशक फल हाथ नही आवे । जो वक्त पड़े करदे टाला, वह क्षत्रिय नर्क बीच जावे ॥ खिला फूल जो आज बाग मे, वह एक दिन कुमलावेगा। इस तन पिंजरे को छोड़, जीव मात्र परभव को जावेगा।
दोहा कत्तव्य अपना समझ कर, खैच लई तलवार । रावण के सन्मुख अड़ा, यो बोला ललकार ।।
दोहा (रत्नजटी) दुर्बुद्धि दुरात्मा, नार्मद चोर के चोर, । कहां सिया को ले चला, देखू तेरा जोर ।।