Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 437
________________ सीता हरण ३६७ VVN (सीता) असुरनरेन्द्र थर्राते, अरुणावर्त की टंकार पर ।।६।। (रावण) मै महाबली त्रिखण्डी, (सीता) बिल्कुल खर है। (रावण) है राम हकीर पाखण्डी, (सीता) शेरे नर है ॥ (रावण) हरगिज न शोभे कौवे गल, तू रत्नों का हार वर ॥१०॥ दोहा (रावण ) आया हूं मैं लंक से. कर तेरा अनुराग । निश्चय हृदय मे धरो, खुले आपके भाग ।। तुम त्रिखण्डी की पटरानी, बन गई चाल शुभ कर्मो की। अब चन्द दिनो मे ज्ञात हो जाओगी, तुम इन सब मर्मो की ॥ अब जल्दी पुष्पक विमान मे बैठो, दूर सभी यह शर्म करो। पलके पर मौज उड़ाओयी, दिल मे न रंचक भर्म करो। दोहा रावण ने अनुचित वचन, कहे इस तरह भाष । सीता के भी उड़ गये, एक दम होश हवास ॥ देख अनुपम रूप भूप की, खुशी का न कोई पार रहा। अब राजी से नाराजी से, बैठो विमान मे मान कहा ॥ वज्र घात हुआ हृदय पर, मानिंद फूल मुर्काई है। ऊंचे स्वर से रोई सीता, नयनो मे जल भर लाई है। दोहा प्रबल वीर रस धार कर, बोली सीता नार । दुष्ट यहां से भाग जा, क्यो मरता बदकार ॥ आकर के श्रीराम तेरा यह, धड़ से शीश उड़ादेगे। महा वज्रावर्तज धनुष बाण से, तेरे प्राण गवादगे।

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