Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 438
________________ ३६८ रामायण ~ ~~~~~~ ~~~~~~ स हाथ बढ़ा कर रावण ने, झट पट विमान बैठाई है। फिर बैठ के श्राप विमान मे, झट चलने की कला दबाई है। परवश वह सीता हाय हाय कर, ऊँचे स्वर से रोती है। हाथों से सिर पीट पीट कर, अपने तन को खोती है ।। सब देख हाल यह, तुरत जटायु पक्षी पीछे धाया है। निज चोंच पंख और पंजों से, रावण संग युद्ध मचाया है। सीता को छुड़वाने कारण, तन मन से जोर लगाया है। पक्षी नहीं हटा हटाने से, फिर क्रोध भूप को आया है। पकड़ जटायु को कर से. दो बाजु तोड़ बगाया है। वह पंख हीन लोचार जटायु, शरण धरण की आया है। कुछ फिकर नहीं पक्षी को, अपने दु ख का या मर जाने का । एक शल्य बड़ा है हृदय में, सीता को हर ले जाने का ॥ निर्भयता से जारहा रावण, बैदेही रुदन मचाती है। यह मुझे ले चला दुष्ट कोई, आ करो सहाय बताती है ।। हे राम पति देवर लक्ष्मण, रावण से मुझे छुड़ालो तुम । हा खेद पुकार कोई नहीं सुनता, हो बैठे सब ही गुम शुम ।। हाय ससुर दशरथ तुम ही, कुछ आज सहाय करो मेरी। हे जनक पिता कहाँ गये, विदेहा माता मै जाई हूं तेरी। ह भामंडल वीर कहीं, सुनता हो मुझे छुड़ा लेना। कोई परोपकारी मनुष्य मात्र, रावण से मुझे बचालेना ।। क्या निश्चल सब ही पत्थर की, मूर्ति के मानन्द बने । क्या आज मेरी किस्मत लौटी, दुखिया की कोई न बात सुने ।। सास और परिवार सभी, कहते थे तू मत जा बन में । यह किस्मत उल्ट गई मेरी, बस एक नहीं लाई मन मे ।।

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